Wednesday, March 25, 2009

ग़ज़ल

ग़ज़ल
(1)
शाम जब-जब उदास होती है
ज़िदगी आसपास होती है

दिल की बातें किसी से करने दो
अक़्ल क्या सबके पास होती है

कब तलक अपने ग़म छुपाओगे
आँख भी मेरे पास होती है

तुमसे मिलके मैंने ये जाना
वफ़ा अश्कों के पास होती है

जान जाए कि जान बच जाए
जान जाने के पास होती है

(2)
हर आदमी के नाम का काग़ज़ नहीं है
आदमी का क़द मगर काग़ज़ नहीं है

काग़ज़ों ने ज़िदगी का मात दी है
ज़िदगी फिर भी मेरी काग़ज़ नहीं है

तक़दीर में तरमीम का पर्चा चलाया
फिर जवाब आया वहाँ काग़ज़ नहीं है

काग़ज़ों की काग़ज़ों से काग़ज़ों में है लड़ाई
कौन समझे! काग़ज़ों ता फ़ैसला काग़ज़ नहीं है

काग़ज़ों के वक़्त में सब आदमी भी काग़ज़ी
काग़ज़ों से हो रही वो पीड़ तो काग़ज़ नहीं है

7 comments:

Vinay said...

शुभकामनाएँ, लिखते रहिए!

RAJNISH PARIHAR said...

wow...gazab ki rachnaa hai...

दिगम्बर नासवा said...

तुमसे मिलके मैंने ये जाना
वफ़ा अश्कों के पास होती है

khoobsoorat hai poori gazal. aapne sahi kaha aansoo umr bhar vafa karte hain
काग़ज़ों की काग़ज़ों से काग़ज़ों में है लड़ाई
कौन समझे! काग़ज़ों ता फ़ैसला काग़ज़ नहीं है

कागजों में लपेट कर कागज़ की ग़ज़ल....कागज़ से ज्यादा खूबसूरत बनी है. इन्हें कागज़ के नहीं अस्लिके फूल मिलें सही कामना है मेरी

शोभित जैन said...

शाम जब-जब उदास होती है
ज़िदगी आसपास होती है...
bahut khoobsurat

अनिल कान्त said...

एक से बढ़कर एक हैं .....आपका स्वागत है

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

Sanjay Grover said...

दिल की बातें किसी से करने दो
अक़्ल क्या सबके पास होती है

कब तलक अपने ग़म छुपाओगे
आँख भी मेरे पास होती है

Achchhe sher haiN.

प्रीतीश बारहठ said...

शुक्रिया जनाब।