Monday, July 20, 2009

कविता

इस जनम में सुहाग

हे कंत!
इस जनम में एक बार,
मुझे कोई शि़कायत कोई पछतावा नहीं
पिछले कई जनमों का,
पर इस जनम में एक बार, एक क्षण के लिए, क्षण के सौवें हिस्से के लिए
मुझे अपने पथ पर लिए चलना अपने साथ
एक बार टोकना मुझे कि मेरे वस्त्र अस्त-व्यस्त हैं
बस एक ही बार मेरे सुहाग की बिंदिया को ललाट के ठीक बीचों-बीच कर देना
मेरे हाथों से ग्रहण करते हुए अपने साजो-सामान
एक बार देख लेना मेरी ओर
बस एक ही बार इशारा कर देना मेरी आँखों के फैल गये काजल की ओर
इस जनम में तो झिड़क देना मुझे मेरी लापरवाही के लिए

हे कंत!
इस जनम में तो दिखाना एक झलक
अपनी प्यारी सूरत की
पिछले कई जनमों का तो कोई पछतावा नहीं
पर इस जनम में एक बार, एक क्षण के लिए, एक क्षण के सौवें हिस्से के लिए
मुझे सुहाग देना।



















पत्नी से विदा

जनम-जनम से मैंने तुम्हें कराया है इंतज़ार
तुमने ख़ामोशी से देखा-सुना है मेरा कारबार

अब एक उपकार और करो
मेरे क़रीब आओ और मेरे सीने से लगकर
मुझे एक बार और विदा करदो
मुझे चूमने दो अपनी पेशानी कि मेरी शक्ति क्षीण हो गई है
मुझे थोड़ी शक्ति और उठा लेने दो अपनी आँखो से
मुझे अभी और रहना है तुमसे दूर

शायद मेरा यह भटकाव भी आखिरी नहीं हो
अपनी आत्मा का आखिरी हीरा भी मुझे ही देदो तुम
मैं बढ़ रहा हूँ दुःलंघ्य पर्वत श्रृंगों की ओर
मैं गिरने जा रहा हूँ अनन्त में
अपनी झपकियाँ भी मेरे साथ करदो
कुछ मत रखो अपने पास
तुम खुद ही रखदो सबकुछ मेरे सामने
मुझे डर है
शायद मैं फिर तुमसे कुछ माँगने न आ सकूं
मेरे ओर करीब आ जाओ
मैं जा रहा हूँ हमेशा के लिए, अभी कभी नहीं लौटूँगा
लेकिन इसी उम्मीद के साथ जा रहा हूँ
कि तुम मेरा इंतज़ार करोगी और पलक तक नहीं झपकाओगी
मैं इसी विश्वास से भरा हुआ जा रहा हूँ
कि तुमने सबकुछ दे दिया है मुझे और कुछ नहीं बचा रखा है अपने पास
ओह! मेरे आगोश में समाओ पहली और आखिरी बार
तुम्हारे बालों को सहलाऊँ, देखो छूट ही रहा था अधरों में कुछ रस
इसे भी देदो, अब तो मुझे तुम्हारी याद भी नहीं आयेगी

ना, अभी कुछ मत कहो
मुझे अभी वक्त नहीं है तुम्हारी बात सुनने को
किसी और के विषय में भी नहीं, तुम खुद ही सम्भालो सब

लो शीघ्रता करो, मुझे तिलक दो
बहुत विलम्ब हो रहा है तुमसे विदा लेने में
अभी मुझे यह भी तय करना है कि जाना कहाँ है!
अभी तो लेनी है तुमसे विदा
और तुमसे विदा लेने में भी इतना विलम्ब कि उफ्फ!....?