Monday, March 29, 2010

पंछी रे! मुझको भी सिखादे

डाल से डाल, यहाँ से वहाँ
खेत से खलिहान, गाँव से गाँव
जंगल से जंगल तक,
तिनके की खोज
चुनना घास के बीज
वो गर्मी से हांफते दिन और बूंद की तलाश
धूल में करना संध्या स्नान
सर्द प्रभात की धूप में
अकड़ना, झगड़ना, करतब से करना
साथी की अपने गर्दन कुचरना
उछलना, फुदकना, लडना, झगड़ना
ध्यान-सा लगाकर
सेंकना पंख
पंछी रे! मुझको भी सिखादे

खाना उनके दाने सदाशय होकर
देना प्रारब्ध का फल
बच्चों से करना बहाना निज तृप्ति का
मुंह से उगल बचाना उन्हें भूख से

मन की सीमा लांघ
मोह भुला धरती का
उन्मुक्त हो उड़ना गगन में
प्रकृति के दिल में उतरना
खींचना कारवांवृत्त रेखा
टूटकर पंक्ति से फिर-फिर जुड़ना

गुजारना रात कभी साख पर
और मौसम-मौसम करना
फिर-फिर नीड़ का निर्माण
पंछी रे! मुझको भी सिखादे

शुभ सूचक कलरव संगीत
और कुछ गीत सुमंगल के
झूलकर शिरा पर गाना प्रभाती
फिर काम पर जाना अकेले, बेठिकाने
भीड़ में घुलमिल भी जाना
रखवाले की आँख के आगे
खेत से दाना चुराकर
उसके बच्चों को लुभाकर
सांझ को घर लौट आना
पंछी रे! मुझको भी सिखादे

4 comments:

Amitraghat said...

अच्छे शब्द और फिर सुन्दर शब्द-चित्र......"

Shekhar Kumawat said...

bahut achi kavita he bhai saheb


http://kavyawani.blogspot.com


shekhar kumawat

सीमा सचदेव said...

kaash ham pakshiyon se seekh paate , sundar kavita ke liye badhaaii

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) said...

are vaah.....kyaa baat hai....!!