Tuesday, February 23, 2010

आज़ादी, बड़ा आदमी

मैं आज़ाद हूँ
  
अब मैं आज़ाद हूँ
मैं भी चाहूँ तो खा सकता हूँ सेब

हालांकि मेरी आँते
पचा नहीं सकेंगी सेब
मेरे स्वास्थ्य को देखते हुए
सेब अभी भारी पड़ेगा मुझपर

हालांकि मेरे बाग में अभी उगा नहीं है सेब
सेब मेरे इलाक़े में अभी आता नहीं है
यह अलग बात है कि मेरी ज़ेब
अभी चुकता नहीं कर सकती सेब के दाम
इससे क्या कि यदि आप दिखायें तो
शायद मैं पहचान भी नहीं सकूँ सेब !!!

पर अब तो मैं आज़ाद हूँ जी
मैं भी चाहूँ तो का सकता हूँ सेब।

बड़ा आदमी

बड़ा आदमी छोटा नहीं होता
बड़ा होता है
उसकी सोच चाहे बंटी हो छोटे-छोटे टुकड़ो में
पर वह होती है बड़ी सोच

आप जा नहीं सकते कभी बड़े आदमी के घर
कदम कर देंगे इंकार, मन करेगा संकोच
बड़ा आदमी भूल जायेगा आपके घर आना
और आप शुक्रगुजार होंगे उसकी याददाश्त के

जिस दिन आ जायेगा बड़ा आदमी आपके घर
घर सिमट-सिकुड़कर खुद ही हो जायेगा छोटा
छोटा हो जायेगा आपका कद, आपका मन
हृदय, सपना, सुख, समझ, पूँजी
सब छोटे होते जायेंगे बड़े आदमी के पदार्पण के साथ ही

बडा आदमी
आपके स्वस्थ-तंदुरुस्त, खेलते-उछलते बच्चे को
साबित कर देगा बीमार
आपके शाक-भाजी को कुपोषक
पानी को जहरीला
दुबली-पतली, सहमी-सी बच्ची को
बहादुर और इण्टैलीजेन्ट,
काली-कलूटी, डरी-सहमी, भौंचक्की-सी पत्नी को
मादक और संस्कारवती
आपके नरक को स्वर्ग साबित कर देगा बडा आदमी

वह बडी उदारता के साथ
आपकी चरमराती चारपाई को कहेगा आरामगाह
बड़ा आदमी बड़े प्यार से
आपको कहेगा निरा बुद्धु, भोला और मूर्ख
वह आपको नुस्खे देगा भला, ईमानदार, चरित्रवान बनने के
वह जरूरत समझायेगा बड़ा आदमी बनने की
और आप समझने लगेंगे खुद को बुरा, भ्रष्ट और ओछा

बड़ा आदमी खा नहीं सकेगा आपकी रोटी
वह उसे चखेगा और कहेगा स्वादिष्ट

वह नहीं करेगा यक़ीन आपके घर की दीवार पर टंगी घड़ी पर
वह देखेगा अपनी कलाई
इसी में रहेगी आपकी भलाई
बड़ा आदमी जाने से पहले तलब जाहिर करेगा
एक छोटी, अदनी-सी बड़ी ही मामूली चीज़ की
जो कहीं नहीं मिलेगी आपके घर-भर, गाँव-भर में
वह खुद ही उबारेगा आपको लज्जा से
वह लघुशंका के लिये देखेगा इधर-उधर
आपको शर्म आयेगी अपने घर के सबसे अच्छे कमरे को भी प्रस्तुत करते हुए
हो सकता है बड़ा आदमी साथ ले जाये अपनी शंका
आपको और शर्मिंदा न करने के लिये

आप तैयार रहें
बडा आदमी हंसेगा ठहाका लगाकर दरवाज़े तक जाते-जाते
तब आपको भी आ ही जायेगी हंसी उसे जाते देख

जब विदा हो जायेगा बड़ा आदमी
तब आप भी महसूस करेंगे खुद को बड़ा आदमी।

Thursday, February 18, 2010

मैं क्या हूँ ईश्वर ही जाने

मैं क्या हूँ ईश्वर ही जाने


मुझसे कुछ मत पूछ जमाने
मैं क्या हूँ ईश्वर ही जाने

पलभर को भी मैं नहीं रुकता
लेकिन क्या हूँ मैं कर सकता
क्षण-क्षण बैर-भाव में चुकता
मैं फिरता हूँ खुद से लुकता
सिर फूटा पर कब है झुकता
कंकर समझे ‘मैं हूँ मुक्ता’

खुद को राजा लगा बताने
मैं क्या हूँ ईश्वर ही जाने

भेद सभी का मैंने खोला
अपना वज़न कभी नहीं तोला
जब-जब मुझसे दर्पण बोला
भड़का मेरे भीतर शोला
नहीं था तन पर अपना चोला
अहम् सदा बढ़-चढ़कर बोला

अपनी कमियाँ लगा छिपाने
मैं क्या हूँ ईश्वर ही जाने

मन था मेरा या चौबारा
वहाँ पाप संकलित सारा
धीरज, धर्म, विवेक बेचारा
नष्ट हुआ सब भाईचारा
सब का सब स्वारथ ने मारा
बना दम्भ जीवन आधारा

लगा घात का जाल बिछाने
मैं क्या हूँ ईश्वर ही जाने


इच्छा मेरी कभी न घटती
दौलत जैसे कभी न बढ़ती
निशि-दिन धी स्वयं से ही लड़ती
पग-पग श्री खतरे में पड़ती
मकड़ी ज्यों जाले में फंसती
मति मेरी भी नहीं सुलझती

सौ-सौ मते लगा बनाने
मैं क्या हूँ ईश्वर ही जाने

मैं भावों से सदा रीतकर
आया था हर युद्ध जीतकर
दुर्बल जीता उसे सभीतकर
सबल हराया छल-कुप्रीतकर
भ्रात, शत्रु औ’ कोई मीत कर
छलता रहा नित्य अनीति कर

लगा यहाँ विद्वान कहाने
मैं क्या हूँ ईश्वर ही जाने

सुख शांति सद्भाव पुराने
प्रेमभाव के ताने-बाने
जिनको मैंने कभी न जाने
लगा उन्हीं पर अब पछताने
शील-धर्म-व्यवहार निभाने
अब जीवनधन कहाँ बचाने

अंत समय उद्भाव पुराने
मैं क्या हूँ ईश्वर ही जाने

Monday, February 15, 2010

इस सूनी बस्ती में ऊँची मत कोई आवाज लगा

आवाज़ों को ढूँढ़ रहा तू बढ़ जायेगा सन्नाटा
इस सूनी बस्ती में ऊँची मत कोई आवाज लगा
(यह मेरी एक ग़ज़ल का शेर है उसीको विस्तार देते हुए नवम्बर, 95 में मैंने यह कविता लिखी)
इस सूनी बस्ती में ऊँची मत कोई आवाज लगा तू


इस सूनी बस्ती में ऊँची मत कोई आवाज लगा तू

यहाँ कोई भी नहीं है देखो छोड़ गये हैं सब अपना घर
कहीं खाली-खाली से घर हैं रह गया कहीँ सामान बिखरकर
खुला एक घर का दरवाजा एक गया है ताला देकर
शायद एक लौट आयेगा एक लगता है गया भागकर
पगडण्डी पर धूल ज़मी है पदचिह्नों का नहीं नामभर
पिछवाड़े में टूटे कांटे कोई गया है बाड़ कूदकर
भूकम्पों का चिह्न नहीं ना आयी कोई बाढ़ प्रलयंकर
यहाँ कहाँ महामारी देखो ना आया तूफ़ान भयंकर
यहाँ अकाल नहीं आया था खलिहानों से पूछो चलकर
नहीं टूटी कोई उनकी आशा हरियाली छायी खेतों पर
बिना दुही गायें रम्भायें नहीं गये वो इनको दुहकर
ग्राम द्वार सब बंद कर गये आयेंगे नहीं कभी पलटकर

कारण तो होगा ही कोई ज़रा बैठ अनुमान लगा तू
इस सूनी बस्ती में ऊँची मत कोई आवाज लगा तू

शायद दूर देश से कोई ख़बर यहाँ ऐसी आयी हो
सुनकर के सब रुक न सके, ना घर की सुधि रह पायी हो
कहीं संकट से त्रस्त किसी की दर्द भरी पाती आयी हो
पढ़कर कदम न रुक पाये हों सबकी आँख भर आयी हो
या फिर ये भी संभव है कि नेह भरी पाती आयी हो
कहीं यज्ञ हो धर्मराज का प्रेम निमन्त्रण वो लायी हो
कहीं ऐसा तो नहीं यहाँ की हवा उन्हें नहीं भायी हो
कैसे पता चलेगा उनको ठाँव और जम आयी हो
कहीं खदेड़ दिये हों वे सब कोई फौज चढ़ आयी हो
ज़रा सोच ऐसा तो नहीं निर्मम मौत उन्हें आयी हो
गये भेंट करने को हों वे स्मृति कोई उभर आयी हो
दूर देश जो उन्हें बुलाले रहता उनका भाई हो

पता हमें करना है उनका पुख्ता कोई प्रमाण जुटा तू
इस सूनी बस्ती में ऊँची मत कोई आवाज लगा तू

सरसर- सरसर, सनसन-सनसन तेज़ हवा का ये झौंका है
खड़खड़ तड़तड़ कर पत्तों ने खामोशी को टोका है
ये कैसी आवाज़! कहाँ से , किसने, किसको लिया पुकार
“मेरी बात सुनो आगन्तुक! छोड़ो तुम ये करुण विचार
ये बस्ती मानव नगरी है मैं हूँ वृद्ध स्वर्ग का वासी
देख रहा हूँ मैं कुछ दिन से होने वाली जग उपहासी
विधि से कोई कष्ट यहाँ नहीं था ये प्रमाण सब सच्चे हैं
वतन छोड़ उनके जाने के अनुमान तुम्हारे कच्चे हैं
जो दिशा पवन अपनाती थी उस और भगे जाते थे वो
और परीश्रम के आगे कमजोर हुये जाते थे वो
धरती की रसधारों से तो वो घबराया करते थे
हाँ आसमान के अंगारे उनको ललचाया करते थे

क्या उनकी ही कर पायेगा कर्मभूमि पर खोज भला तू
इस सूनी बस्ती में ऊँची मत कोई आवाज लगा तू

संयम की प्राचीर लांघ और धर्म से हो विमुक्त
हिंसा के गलियारे से वे स्वार्थ लिये छल-द्वेष युक्त
मूल्यों की नज़र चुराकर के छोड़ यहाँ सब संस्कार
लिपटे घातों की चादर में कर प्रेमभाव का बहिष्कार
मिथ्याचारों के तमपथ पर आलोक सत्य से बचकर के
अवनत हुये जाते हैं वो गति का भावों में मद भर के
अब जिस नगरी में रहते हैं व्यवहार शील वहाँ खोते हैं
हंसने वाले सब हंसते हैं, रोने वाले वहाँ रोते हैं
अब धरती पर ही कहीँ-कहीं कुछ पिण्ड फूट जाते हैं
नभ से आग बरसती है जलस्रोत रूठ जाते हैं
युग-युग से पोषित नैतिकता तो विलाप करती है
हुई सभ्यता नष्ट-भ्रष्ट संस्कृति कहाँ बचती है

नहीं विलम्ब गर लौट सकें यह बात उन्हें बतला तू
इस सूनी बस्ती में ऊँची मत कोई आवाज लगा तू”

Sunday, February 14, 2010

जीवन में आधार तुम्हारा चाहता हूँ

हे सुमुखी! अब इस जीवन में आधार तुम्हारा चाहता हूँ




मैं खूब बिका, मैं खूब लुटा जग को अपनाकर देख लिया

मैं खिला फूल बन बगिया में भ्रमरों का गुंजन देख लिया

मैं हो न्यौछावर कामां पर वेणी का श्रंगार बना

था भूपित का सेवक माली तब मैं कंठों का हार बना

है छोटा सा जीवन मेरा बस एक सहारा चाहता हूँ

हे सुमुखी! अब इस जीवन में आधार तुम्हारा चाहता हूँ



मैं तिनकों की ज्यूं बिखर गया इन हाथों से उन हाथों में

मैं भूल गया अपनी पंक्ति जब रहा बहुत से साथों में

था बीच भंवर तूफान जहाँ वहीं विधि ने मुझको डाल दिया

मैं फिर कण-कण में छिटक गया मुझको न किसी ने जाल दिया

हो लहर-लहर मैं घूम रहा अब एक किनारा चाहता हूँ

हे सुमुखी! अब इस जीवन में आधार तुम्हारा चाहता हूँ



है कब से डोल रही नैया पतवार नहीं आया अबतक

कितने ही किनारे आये, कोई किश्ती को नहीं भाया अबतक

चन्दा को चकोरी ढूंड़ रही, पंछी भटके हैं नीड़ नहीं

मैं भी पल-पल यूँ सोचूं हूँ क्यूं मेरे जीवन में भीड़ नहीं

थकहार चूर अपने पथ पर घर एक बनाना चाहता हूँ

हे सुमुखी! अब इस जीवन में आधार तुम्हारा चाहता हूँ



जब-जब मन में तूफान उठे नहीं मुख पर कोई बात आयी

कांटों से बिन्धित अंगों से जब रुधिर धार बह ही आयी

मैं पत्थर की ज्यूं शिथिल रहा नहीं दर्द कभी महसूस किया

अपना अन्तर सुख भी मैंने निज हाथों निज से दूर किया

अपनी पीड़ा का अश्रु बहा अहसास करना चाहता हूँ

हे सुमुखी! अब इस जीवन में आधार तुम्हारा चाहता हूँ

Thursday, February 11, 2010

नज़्म

नज़्म




नज़र से मिली नहीं नज़र कि दिल बेताब हो उठे


मुहब्बत कब हुई मोहताज़ किसी पुख्ता तआरुफ की



वो मिलना नज़र का, ठिठकना एक पल का

वो भी क़यामत था झुकाना पलक का

कुछ हल्की सी लहरें उठीं मेरे दिल में

सम्हाले ने सम्हला तूफ़ां जिगर का



इक पल को तो यूँ रह गये हम ठगे से

जो उनकी भी आँखों में मौसम को देखा

वो जो हवायें वहाँ चल रही थीं

उनको पलटते उधर से जो देखा



कैसे बताऊँ कहाँ खो गया था

जीवन में पहला वो ऐसा समां था

रूह भी पराई होने लगी थी

दिल बेवफ़ाई करने लगा था



दीग़र नज़ारे सभी खो गये थे

ख़्वाबों, ख़यालों का मौसम बना वो

उनका भी आँचल उड़ने लगा

आँखों ही आँखों में तूफाँ उठा वो



वो तूफ़ाँ अभीतक थमा ही नहीं है

होशो-हवास उड़े जा रहे हैं

फिर उनकी आँखों में देखूँगा कैसे

मुझको सितारे नज़र आ रहे हैं



है कोई जो मुश्किल आसान करदे

मुहब्बत के दरिया का साहिल नहीं हैं

मुझको किनारे की ख़्वाहिश नहीं पर

डूबी है कश्ती, नाखुदा भी नहीं है


उन्हीं से कहे यह बात बने तो


यारब वे ही अब यह किश्ती संभाले

मैं तो नज़र अब चुराने लगा हूँ

कब ये हो कि वे पास बुलालें

Tuesday, February 9, 2010

राजा में ईश्वर ?

राजा में ईश्वर ?




जब हम बच्चे थे

ढूँढ़ा करते थे चाँदी के बाल

ऊँट के पदचिह्नों में



कुछ लोग कहते थे

सौ के नोट में होता है सोने का तार

उसे निकाल लो तो नोट की कोई क़ीमत नहीं

फिर नोट है बेकार



मैं अब भी चाहता हूँ चाँदी के बाल ढूँढ़ना

फाड़कर फैंक देना चाहता हूँ सौ का नोट

निकाल कर सोने का तार !

हाँ मैं आज भी उन बातों पर यक़ीन करना चाहता हूँ

जाना चाहता हूँ वहाँ

जहाँ भरमा सके मुझे कोई



आओ हम सब मिलकर थूंके बाज़ की छाँव में

हम जितना थूंकेंगे बन जायेंगे उतने ही सिक्के

फिर तुम कर सकोगे हीनार्थ प्रबन्ध

यक़ीन करो

बाज़ न ऋण देता है

न ब्याज लेता है



हाँ – हाँ ! मैं नहीं समझना चाहता तुम्हारा अर्थशास्त्र

और धातु का उत्खनन



खूब समझाया दादाजी ने

राजा में होता है ईश्वर का अंश

तुम कहते हो – राजा बदल दो ये लायक नहीं

मुझे पूछ आने दो दादाजी से-

क्या अब नहीं रहता राजा में ईश्वर !

या ईश्वर अब लायक नहीं रहा है?

Tuesday, February 2, 2010

प्रेम तो है मर्ज़ मेरा

प्रेम तो है मर्ज़ मेरा




1. वो तो निकला है गगन में

धूप से सबको बचाने

तुम न देखो जो उसे

उसको नहीं नखरे उठाने

वो है निश्छल सबका प्यारा

और सब उसको हैं भाये

खुद को दुनिया से बचाकर

कौन ऐसा चाँद होगा

जो कि तुझको ही लुभाये

जो कि तुझको ही रिझाये



2. ये हवायें टूटती है

पर्वतों के पार से

हर चमन के गुल खिले हैं

एक ही बहार से

इसमें ही लोरी गूंजती है

ये ही आतुरता जगाये

तेरे आँचल का सरीखा

कौनसा मधुमास होगा

जो कि मुझको ही सुलाये

जो कि मुझको ही बुलाये



3. उसकी किरण से दीप्त है

संसार का हर-एक कण

जन्म से सोया नहीं

जो कभी भी एक क्षण

उसके पावन कर्म का

मोल कौन, क्या चुकाये?

कर विचार! सूर्य भी

क्या दीप की मानिंद होगा

जो कि तुझको ही दिखाये

जो कि तुझको ही पढ़ाये



4. मेरा ये उपक्रम है ऐसा

जो चुकादे कर्ज़ मेरा

इस हृदय से उस हृदय तक

प्रेम तो है मर्ज़ मेरा

मैंने तेरे सामने भी

बैठकर आंसू बहाये

मैने सोचा ही नहीं है

मेरा ऐसा प्यार होगा

जो कि केवल तुमको पाये

जो कि सबको भूल जाये