Friday, February 11, 2011

तीन ग़ज़लें

1
ज़ख़्म ही ज़ख़्म हैं, अश्क ही अश्क हैं यहाँ हर तरफ़
बच के जायें किधर, चश्म ही चश्म हैं यहाँ हर तरफ़

मौत ही मौत है ज़िंदगी में यहाँ, आँख में ख़ौफ़, दिल में शुबहा है यहाँ
किस-किस से बचें, रश्क ही रश्क है यहाँ हर तरफ़

तूफ़ान हैं हर ज़हन में बहुत, किसको समझें सभी पेचीदा बहुत
किस-किस को कहें, नुक़्स ही नुक़्स हैं यहाँ हर तरफ़

हुस्न का, इश्क़ का, दौलत का गुमाँ, बहका हुआ हर मंज़र खड़ा
हाथ से लब तलक, चश्क ही चश्क हैं यहाँ हर तरफ़

किसको मानें वली, किसको रहबर कहें, कैसे चलें अलग राह पर
जिस तरफ़ भी चलें, नक़्श ही नक़्श हैं यहाँ हर तरफ़

2
कम कैसे ज़िदगी का ग़म करदूँ
कौनसा ख़र्चा है जिसको कम करदूँ

कोई दम आ जाये हाथ में सूरज
नाक में रौशनी के दम करदूँ

मैं हू कि मेरा वहम हूँ मैं
नज़ात पाऊँ जो मैं को हम करदूँ

इतनी हक़ीक़त है मेरी हस्ती कि मैं
तमाम आलम को इक वहम करदूँ

ख़फ़ा बेइख़्तियार हूँ ख़ुद से
जी में आता तो है, रहम करदूँ

3
हरेक शख़्स को जानी ग़म है
उसके हिस्से की कहानी कम है

कितने दरिया अश्कों से भरे मैंने
शहर ने मुझसे कहा पानी कम है

नीयत बिगड़ी है तो यूँ कहदे
क्यूँ कहता है, जवानी कम है

अलग मेरे ख़ून का मुद्दा, ज़माने से
क्या मेरे ख़ून में रवानी कम है

मुझे लौटा दिया बादे बहस, मुझमें
दुःख ज़ियादा है, कहानी कम है

Thursday, February 3, 2011

ग़ज़ल

कैसे समझाऊँ कि क्या होता है
ज़िक्र करते ही वो तो रोता है

उसे चराग़ों का इल्म कैसे हो
हाथ आँखों पे रखके सोता है

ये नज़ारे हसीन हैं लेकिन
जाने क्यूँ मुझको वहम होता है

आँख कुल जाएगी जब ये टूटेगा
तेरे सपने में क्या-क्या होता है

लौट आयेगी हवाओं में नमी
आँसुओं को चमन में बोता है

जो भी इस दौर की दुनिया से
बात करता है, बात खोता है

चैन कभी ठिकाने नहीं मिलता
कहाँ जाने फिरता रोता है