Tuesday, June 30, 2009

गजल

घर से जो निकल गया आदमी
फिर मशीन में ढल गया आदमी

इधर से धुआं उठा, उधर बरसा
मेघ आँखों से बन गया आदमी

फंस गया स्याह रंग बदन में उसके
पत्थर ले खुद से पिल गया आदमी

मशीन उसके शहर में भी बंद पड़ी है
जानता है कल-पुर्जे नया आदमी

पेचकस, प्लास, बटन, कुछ खराब
दिमाग से कबाड़ बन गया आदमी

दुनिया के हरेक विस्फोट से वाक़िफ़
सूचना का भण्डार बन गया आदमी

हर ज़ेब में कुछ न कुछ रखता है, मगर
देखिये कंगाल बन गया आदमी

कुछ घिस गया, कुछ नया रह गया
पूरा जवां नहीं है, नौज़वां आदमी

5 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत सुन्दर गज़ल है।बधाई स्वीकारें।

वन्दना अवस्थी दुबे said...

वाह बहुत बढिया.

दिनेशराय द्विवेदी said...

आज का युग किस तरह इंसान को मशीन में तब्दील कर रहा है? उसी को अभिव्यक्त करती सशक्त रचना है।

Urmi said...

वाह वाह क्या बात है! बहुत ही उम्दा और शानदार ग़ज़ल लिखा है आपने जो काबिले तारीफ है!

ओम आर्य said...

bshut hi bariki se aapane gazal ke ek ek panktiyo ko wartman samay se jod diya hai ............bahut hi sundar hai badhaee