Thursday, November 19, 2009

पिता - २

पिता -२

एक समय-

कोई जवाब नहीं था
मेरे पिता का

जब से -


आँखों ने, घुटनों ने, हाथों ने, उंगलियों ने

दिन ने, रात ने, समय ने

सुबह ने, शाम ने

मौसमों ने

भीतर ने, बाहर ने

दे दिया है जवाब मेरे पिता को



तब से –

छोटे भी, बड़े भी

मां भी, बहु भी

अपने भी, पराये भी,

देने लगा हूँ मैं भी

जवाब अपने पिता को



अब तो –

चश्मे की, दवा की,

बैंत की, सांस की

कपड़ों की, गरम की, ठंडे की

नन्हें-मुन्ने पौते-पौतियों की

पिता से बची है थोड़ी-बहुत बातचीत



कोई नहीं डराता

पर –

हवा से, वर्षा से, धूप से

बेटे से, बहु से, पत्नी से

हर आने - जाने वाले से

उपर वाले से,

प्यार से, सम्मान से, शिकायत से

डरा-डरा रहता है पिता



कोई परवाह नहीं करता

पर –

पेड पर, पौधे पर

माली पर, दूध वाले पर

अखबार वाले पर,

तस्वीरों पर, मंदिर पर,

कुढ़न पर, घुटन पर,

रोग पर, विराग पर,

बच्चों के

खिलौनों पर, रूठने-मनाने पर

जिद पर

अपना हक़ मानता है पिता



इसी दुनिया में

जब धमकाती है मुझे

मेरी बेटी

आँखे तरेर जब वह कहती है

“पापा! आपकी शिकायत बोलूंगी मैं दादोसा से”

अपना खूंखार, रोद्र रूप बहुत बौना लगने लगता है

उसकी जिद के आगे

डरने का-सा ड्रामा करता मैं करने लगता हूँ मिन्नतें बार-बार

“नहीं बिटिया, नहीं, नहीं!”

और उसकी डांट, उसकी धमकियाँ होने लगती हैं

ऊँची, और ऊँची, और ऊँची

और तब –

उस एक क्षण में भीतर ही भीतर टपकते हैं प्रेमाश्रु

हृदय होता है विह्वल

कि

अभी निर्रथक नहीं हुआ है मेरे पिता का अस्तित्व

अभी कोई करता है पिता पर विश्वास

अभी दुनिया में किसी एक को जरूरत है मेरे पिता की



जमाने के सामने

काश ! इसे मैं रख सकूँ प्रमाण के रूप में

अपने पिता के अस्तित्व के

10 comments:

kishore ghildiyal said...

bahut badhiya likha hain

Ashok Kumar pandey said...

यह कविता बेहतर बनी है। भावनायें नियंत्रण के साथ बाहर आईं हैं पर भाषा के स्तर पर अभी बहुत कुछ किया जाना है।

आपकी अगली रचनाओं का इंतज़ार रहेगा

रूपसिंह चन्देल said...

Priy Bhai

Achhi Kavita.

Badhai

Chandel

Rangnath Singh said...

मर्मस्पर्शी कविता है। पसंद आयी।

aarya said...

प्रितीश जी
सादर वन्दे!
आपकी रचना की बड़ाई शब्दों से नहीं कि जा सकती, अत्यंत ही उत्सर्जक प्रस्तुति,
बधाई स्वीकार करें!
रत्नेश त्रिपाठी

मुनीश ( munish ) said...

i may not agree with Ashok here! In my opinion people writing rhyme-less poetry should learn something from Pritish. The poem is not only a very moving expression, but also 'mukammal' in terms of craft as well. It is difficult to write simple!

O.L. Menaria said...

परिवार में वृद्व पिता की मनोदशा एवं बालमन का उनमें अपनी सुरक्षा के विश्वास का बहुत ही सटीक चित्रण किया है आपने.

रंजना said...

Kya kahun...man bhavuk kar gayi aapki yah rachna....

Bahut bahut hi sundar aur prabhavi dhang se aapne chouthepan kee peeda ko shabdon me baandha hai...

Is adwiteey rachna ke liye aapka sadhuwaad !!!

Astrologer Sidharth said...

सुंदर, बहुत सुंदर्...

दिगम्बर नासवा said...

bahut ki maarmik ....... lajawaab ..... kamaal ka lokha hai ... pita ki trasadi ... unke hreday ki ghutan la ... badalti paristhiti ka lajawaab chitran hai ...