1.
पेड़ भी है और पेड़ का तना है
मगर पेड़ पर चढ़ना मना है
बेच सकता हूँ उसे गर ख़रीदो
मेरे ख़्वाबों में एक महल बना है
मेरे एकस्व की राशि मुझे दो
तुम्हारे लिये मैंने सपना बुना है
सुनी थी मैंने एक सर्कस की चर्चा
वही संसद में होता है, सुना है
कहते हैं उधर अपना ही घर है
यह भी सुनते हैं उधर जाना मना है
इस मार्ग में यहीँ से लौट जाओ
आगे चलकर अँधेरा घना है
बड़ा मौन है, घर में कलह होगा
हरेक शख़्स ऐसे ही तना है
2.
तुमसे पहले यहाँ आये बहुत हैं
जंगल में दरख़्तों के साये बहुत हैं
ख़ामोश थे जब यहाँ से गये वो
यहाँ बैठकर छटपटाये बहुत हैं
हाँ! चाँद ठंडा है धरती से ज़्यादा
हमने भरम ऐसे खाए बहुत हैं
ये ऐसी ख़ुशी है कि रोना पड़ेगा
गीत इसके तुमने गाए बहुत हैं
उनसे न पूछो पानी की पीड़ा
वो तो फ़क़त नहाये बहुत हैं
मेरे दुःखों ने उन्हें तोड़ डाला
घड़ियाली आँसू बहाये बहुत हैं
मैं शाप देता हूँ तुम्हें तश्नगी का
तुमने जो लोग सताये बहुत हैं
ये अलग बात है कि ज़मीं पे नहीं हैं
काग़ज़ पे पेड़ लगाये बहुत हैं
देखो तुम्हीं कैसे बेघर हुए हो
तुमने ही घर जलाये बहुत हैं
हम ही सबकी नज़र से परे हैं
हमें लोग यहाँ पर भाये बहुत हैं
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3 comments:
बेच सकता हूँ उसे गर ख़रीदो
मेरे ख़्वाबों में एक महल बना है
बहुत खूब. दोनों गज़लें सुन्दर हैं. दुष्यंत जी की याद आ गई.
सराहनीय लेखन....हेतु बधाइयाँ...ऽ. ऽ. ऽd
दोनों रचनायें पसन्द आयीं।
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