Wednesday, March 25, 2009

ग़ज़ल

ग़ज़ल
(1)
हालात की माना बहुत मज़बूरियाँ हैं
आप में भी तो बला की ख़ूबियाँ हैं

मुल्क सारे हो गए नज़दीक, लेकिन
आदमी की आदमी से दूरियाँ हैं

अब हमें समझाइएगा खोलकर भी
जी! नसीहत हैं कि ये पहेलियाँ हैं?

बिक रहीं आपके बाज़ार में छूट पर,
ये हमारे देश की चमेलियाँ हैं

हरगिज़ नहीं नसीब, क्या पढ़ रहे हो
ये तुम्हारे हाथ हैं, हथेलियाँ हैं

भीड़ दौड़ेगी अभी, पैकट गिरेंगे
भूख में भी तो बड़ी रंगरेलियाँ हैं

(2)
देता है मुझे भी वो आवाज़ ऐसे
मेरा साया नहीं, हो जल्लाद जैसे

छोड़कर दूर निकल जाता है
ज़्यादा है उसकी परवाज़ जैसे

ज़हन उलझन से भरा रहता है
मैं करूँ अक़्ल की बात कैसे

मिलता है मुझे काम तो लेकिन
कम ही आते हैं मेरे हाथ पैसे

मुझसे मेरी अब नहीं निभती
मेरी बातें ऐसी हैं, अंदाज ऐसे


(3)
न दाँत अपने, न आँत अपनी
अधपकी है अभी बात अपनी

अपने काँधे पे ढोयी गई
बहुत लम्बी है हयात अपनी

दिन होली, क्या रात दिवाली
न दिन अपने, न रात अपनी

लाइन में रह, इंतज़ार कर
अभी पूछी गई है जात अपनी!

किनारे से फंदा फैंका गया है
टाँग आ गई उनके हाथ अपनी!


(4)
बात ऐसी भी नहीं है, बात वैसी भी नहीं है
क्या कहूँ तुमसे, बात कैसी भी नहीं है

ये जो दुनिया है, जिसमें रहना है हमें
तेरे जैसी भी नहीं है, मेरे जैसी भी नहीं है

शहर की शान है तो मंहगी भी बहुत
इतनी ऊँची जगह है, रहने जैसी भी नहीं है

एक शख़्स बोलता है हमारे मुँह पर, मगर बात
मेरे जैसी भी नहीं है, तेरे जैसी भी नहीं है

बात ऐसी भी नहीं है, बात वैसी भी नहीं है
मैं कुछ भी कहूँ कैसे?, कहने जैसी भी नहीं है

2 comments:

शोभित जैन said...

Kis kis sher ki tarif karun ... sabhi ek se badkar ek hain
magar ek chota sa suggession dena chahta hun....itne beshkeemti motio ko ek hi baar mein pesh karenge to kuch moti logo ki nazar mein aane se rah jayenge....

प्रीतीश बारहठ said...

शुक्रिया जनाब,

तारीफ़ के लिए भी और मशविरे के लिये भी।
उक्त रचनायें मेरे प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह "सयानी बातें" से प्रस्तुत की की गई हैं।
बहुत-बहुत शुक्रिया....

प्रीतीश