Wednesday, March 25, 2009

कविता

चिड़िया
उठा लाई तिनका, चिड़िया
घर बनाएगी वह मेरे घर में
कोई भी नहीं देख पाता है अपने घर में दूसरा घर
मैं भी उठाकर फैंक दूँगा चिड़िया के सारे तिनके
चिड़िया चहकेगी! फिर उठा लाएगी ढेर-सारे तिनके
बनाकर ही मानेगी वह मेरे घर में घर
और मैं उठा-उठाकर फैंकता रहूँगा घरों पर घर
फिर चिड़िया वहाँ बनाएगी घर
जहाँ मेरे ही घर में नहीं पहुँचती मेरी नज़र
लेकिन मैं देख लूँगा एक दिन अपने घर में दूसरा घर
आखिर मेरा अपना है घर
उठाकर ले जाऊँगा घोंसला अंड़ों समेत
फैंकने पर फूट सकते हैं अंड़े
मैं ये पाप नहीं करूँगा
दूर रख आऊँगा घोंसला अंड़ों समेत
मैं नहीं समझूँगा चिड़िया की भाषा में-
कि घरों को भी होती है एक अदद छत की ज़रूरत
वे नहीं छोड़े जा सकते खुले आसमान में
फिर पनपते ही हैं सब घरों में घर
सबके घर तोड़ने वाले भी होते हैं;
अंड़े फूट भी जाते हैं और किसी को भी नहीं लगता उनका पाप
ऐसी बहुत-सी बातें
कि मेरा घर भी है किसी के घर में घर
कि इतने घरों में भी क्यूं नहीं मिलता घर में घर
मैं कभी नहीं समझूँगा चिड़िया की भाषा में
चिड़िया चाहे कितना ही चहके।।।

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