Wednesday, December 2, 2009

हृदयनद

हृदयनद


चलो
मैं तुम्हें उस नदी का परिचय करादूं
जो इन दिनों सूखी है तात्!

कहते हैं
यह अब कभी नहीं बहने वाली
स्वयं नदी भी यही कहती है
पर नदी का बहना तो
वर्षातों, जलकुण्डों, हिम खण्डों पर निर्भर है

हाँ जब यह बहती थी
कभी नहीं बही आधी-अधूरी
देखो प्रमाण!
किनारे आज तक हरे हैं इसके
इसने अपने पारावार से ही बनाया पर्वतों के बीच रास्ता
सागर हमेशा रहा इसके स्वागत को आतुर, शायद आज भी हो

जिसने भी आचमन किया इसके जल का
या डूबकर किया इसमें स्नान
वो जी गया अपना समूचा जीवन कृत-कृत्य होकर
इस नदी के जल का आराध्य देने से ही सूर्य है पवित्र
और बढ़ गया है उसका प्रकाश

नदी
अपने नज़दीक फैला कितना ही मल
बहा ले गई अपने माथे पर
बिना अपने प्रदूषण के भय के

नदी इन दिनों सूखी है तात्!

लेकिन
तुम इसकी मिट्टी उठाकर देखो एक मुठ्ठी
या धीरे से रखो मेरे हृदय पर हाथ!!!
इसमें तुम आज भी कर सकते हो
बहते पानी का आभास
पानी जो अब और निर्मल हो गया है
अब प्रदूषित भी नहीं है जल इसका
न नदी के पास अपना मन है, न मन का मैल

लेकिन जो आते हैं मरणासन्न व्यक्ति उसके पास
उनके जीवन के लिये
आज भी है नदी के हृदय में स्पंदन
बहती रहेगी नदी सदा दूसरों के लिये
भले ही स्वयं के लिये सूख चुकी हो

अरे! हाँ सूख कर स्वयं के लिये
कुछ और पवित्र, कुछ और निर्मल
कुछ अधिक प्रवाहमयी हुई है नदी।

5 comments:

वन्दना अवस्थी दुबे said...

बहुत सुन्दर सार्थक रचना.

अनिल कान्त said...

नदी के माध्यम से आपने कई बातें कहीं हैं. कविता बहुत पसंद आई मुझे

रंजीत/ Ranjit said...

jeevant aur mohak.
regards
Ranjit

BrijmohanShrivastava said...

भलेही स्वं सूख जाये पर दूसरों के लिये जीवनदायनी बनी रहेगी ।इस जल का आराध्य देने से ही सूर्य का पवित्र होना ।ह्रदय को नदी की तरह प्रस्तुत करने से एक तो रचना मे पर्यायोक्ति अलंकार का गुण आ गया है और परोपकार की भावना इसमे समाहित है पर्वातों के बीच स्वं रास्ता बनाना एक द्रढ इच्छा शक्ति का प्रतीक है ""सागर (शायर का नाम ) सागर खुद अपनी राह बनाकर निकल चलो /वरना यहां पे किसने किसे रास्ता दिया ""। या तो मिट्टी उठा कर देखो या मेरे ह्रदय पर हाथ रखो अति अति सुन्दर रचना

Udan Tashtari said...

बहुत गहरी रचना...बहुत पसंद आई.