Tuesday, December 8, 2009

माँ

माँ


तेरे साथ बिस्तर छोड़ने की आदत बुरी थी
वो ब्रह्ममुहर्त ही मेरे क्रंदन की घड़ी थी
तुम जब उठीं छुड़ा मेरे हाथ से आँचल
जग की शेष सत्ता सय्या पर पड़ी थी

तेरे हर काम में थी विघ्न मेरे क्रंदन की राग
तुम दिन के पोषण को चिंतित समय रहा था भाग
माँ, तुम ममत्व की मूर्ति मुझ पर नहीं खीझी
रीझ उठाया गोद में देकर दीपक को आग

ले चलीं तुम ढूमला* भर अनाज से पूर्ण
जिसके बल पलता रहा घर का दिन सम्पूर्ण
थी चाकी आँगन में जहाँ, वहाँ हम दोनों पहुँचे थे
तेरे घुटने से लग सोना था कितना सुखपूर्ण

फिर जीवन का राग वहाँ चाकी से उभरा था
पा संकेत जगे बाबा, फिर अलाव जागा था
बैंलों ने गर्दन खुजलाई, ज्यूँ मंदिर में झालर
मैं फिर निद्रालीन हुआ वह संगीत बजा था

अपने मस्तक से तूने नहीं बूंदे कभी हटाई
पल-पल मेरा गाल पौंछ तूने करवट बदलाई
धीरे-धीरे घरभर जागा पंछी जागे सारे
नभ में सूरज चमक उठा कुछ किरनें अंदर आईं

अजा-वत्स ने आंगन में आ मेरी नींद भगाई
उठा गोद में चूमा मैंने उसने ली अंगड़ाई
छोड़ अकेला मुझे चौक में दौड़ गया था दूर
जिस पल वहाँ ऊँट ने आकर गर्दन बहुत बढ़ाई

बहुत दिनों से मैं सोया हूँ बिना गोद के तेरे
आँचल भी अब हाथ नहीं है भाग्य जगें जो मेरे
जननी तुम कब की उठ बैठी मुझको क्यूँ न जगाया
वो पावन बेला भी बीती बीते बहुत सवेरे

अपने आँगन से उठा ले गया कौन बता माँ चाकी
घर में चाकी के बिन कैसे कमी खलेगी माँ की
दिनभर कैसे भूख कटेगी कोई उपाय बता माँ
बिना पिसे ही रहा पात्र में कुछ अनाज है बाकी

क्यूँ नहीं आँगन में अपने मित्र मेरे सब आते
बैलों के खूंटे क्यूँ खाली बाबा क्यूँ नहीं आते
ये अलाव ठंड़ा कैसे है, पंछी क्यूँ नहीं गाते
मेरे घर की जीर्णदशा क्यूँ नहीं मुझे बतलाते

मुझे पकड़ना नहीं आता है बापू को बुलवा माँ
बापू दूर कहाँ जा बैठे आवाज़ उन्हें दिलवा माँ
घर-आँगन सब रौंद रहे हैं ऊँट नकेल तोड़कर
इन्हें पकड़कर वश में करना मुझको भी सिखला माँ



* रद्दी कागज से बना एक विशेष पात्र

4 comments:

अजय कुमार said...

मां को याद करती रचना सुंदर लगी

मनोज कुमार said...

बहुत ही भावपूर्ण रचना।

सदा said...

बहुत ही सुन्‍दर शब्‍द रचना ।

रंजीत/ Ranjit said...

इस कविता को कविता कहूं या मां कह लूं। अर्थ एक ही होगा।