Friday, January 22, 2010

सियासत

यह कविता मैंने 1995-96 में लिखी थी। तब नहीं सोचा था कि 15 वर्ष बाद भी इसे किसी को सुना सकूंगा।
सियासत

मैं नहीं जानता अर्थ सरहदों का
क्यूंकि  नहीं है मेरे पास सियासत
मैं नहीं कर सकता भेद हक़ों में
क्यूंकि नहीं है मेरे पास कोई हक़

वो भर देते हैं रंग वादियों में
लौटा लाते हैं हवाओं को अपनी-अपनी सरहदों के सहारे
मैंने तो रंग कभी देखे भी नहीं
हमेशा उन हवाओं ने छुआ मुझे
जो फैला दीं उनने मेरे आसपास

सरहद के इधर या उधर
मेरे पास तो है दर्द ही दर्द
क्यूँ कि मैं तो अवाम
इस मुल्क़ की या उस मुल्क़ की

जो कह देते हैं वे मान लेता हूँ मैं
मुझसे माँगा जात है मत
और अगर मैं विचारने लगूँ
तो फिर कहा जाता है मत
कभी-कभी उनकी आँखों में आँखें डाल
उनकी सीधी उंगली को पहचान
जब मैं भी कह देता हूँ मत
तब उनकी आँखों से बरसती है एक ज्वाला!
यदाकदा जब मेरे आसपास के मत
मेरे मत से मिल टकराते हैं उनकी गर्जना से
तब होता है एक धमाका sssssssss!’
नहीं रह जाती  उन्हें जरूरत हमारे मत की।

वो जाते हैं दूर-दूर, कहते हैं देश-देश
कि वो लेकर आये हैं मेरी बात,
वो करते हैं मेरे मन की बात
जब कभी मैं खुद कहना चाहूँ अपनी बात
बंद कर देते हैं मेरा मुंह उनके हाथ
वो कहते हैं—
उन्हें मैंने बनाया, दिल्ली भी मैंने ही भेजा, बैठाया आसनों पर
मैं तो कबसे भेजना चाह रहा हूँ अपना दुःख कहीं भी/ हिलता ही नहीं निर्लज्ज
कब से बनाना चाह रहा हूँ अपना झौंपड़ा / नहीं बनता पूरा
मेरे अर्द्धनिर्मित झौंपड़े जल जाते हैं खुद-ब-खुद

उनके ज़हन में हैं बड़ी-बड़ी योजनायें
क़ाग़जों में नियोजित है समूचा भविष्य
कहते हैं—उन सबमें मेरी ही है तस्वीर
जब खुद चला जाता हूँ कभी सामने
नहीं सुहाता मैं उन्हें फूटी आँख

सब जानते हैं वो
मैं कब कैसा करूंगा व्यवहार
क्या है मेरी बात
किसे मान लूंगा अपनी सरहद
मेरे ही हाथों सम्पन्न करवायेंगे वो मेरा भविष्य
क्यूंकि उनके पास मौजूद है सियासत।

1 comment:

अजय कुमार said...

सुंदर अभिव्यक्ति