Monday, February 15, 2010

इस सूनी बस्ती में ऊँची मत कोई आवाज लगा

आवाज़ों को ढूँढ़ रहा तू बढ़ जायेगा सन्नाटा
इस सूनी बस्ती में ऊँची मत कोई आवाज लगा
(यह मेरी एक ग़ज़ल का शेर है उसीको विस्तार देते हुए नवम्बर, 95 में मैंने यह कविता लिखी)
इस सूनी बस्ती में ऊँची मत कोई आवाज लगा तू


इस सूनी बस्ती में ऊँची मत कोई आवाज लगा तू

यहाँ कोई भी नहीं है देखो छोड़ गये हैं सब अपना घर
कहीं खाली-खाली से घर हैं रह गया कहीँ सामान बिखरकर
खुला एक घर का दरवाजा एक गया है ताला देकर
शायद एक लौट आयेगा एक लगता है गया भागकर
पगडण्डी पर धूल ज़मी है पदचिह्नों का नहीं नामभर
पिछवाड़े में टूटे कांटे कोई गया है बाड़ कूदकर
भूकम्पों का चिह्न नहीं ना आयी कोई बाढ़ प्रलयंकर
यहाँ कहाँ महामारी देखो ना आया तूफ़ान भयंकर
यहाँ अकाल नहीं आया था खलिहानों से पूछो चलकर
नहीं टूटी कोई उनकी आशा हरियाली छायी खेतों पर
बिना दुही गायें रम्भायें नहीं गये वो इनको दुहकर
ग्राम द्वार सब बंद कर गये आयेंगे नहीं कभी पलटकर

कारण तो होगा ही कोई ज़रा बैठ अनुमान लगा तू
इस सूनी बस्ती में ऊँची मत कोई आवाज लगा तू

शायद दूर देश से कोई ख़बर यहाँ ऐसी आयी हो
सुनकर के सब रुक न सके, ना घर की सुधि रह पायी हो
कहीं संकट से त्रस्त किसी की दर्द भरी पाती आयी हो
पढ़कर कदम न रुक पाये हों सबकी आँख भर आयी हो
या फिर ये भी संभव है कि नेह भरी पाती आयी हो
कहीं यज्ञ हो धर्मराज का प्रेम निमन्त्रण वो लायी हो
कहीं ऐसा तो नहीं यहाँ की हवा उन्हें नहीं भायी हो
कैसे पता चलेगा उनको ठाँव और जम आयी हो
कहीं खदेड़ दिये हों वे सब कोई फौज चढ़ आयी हो
ज़रा सोच ऐसा तो नहीं निर्मम मौत उन्हें आयी हो
गये भेंट करने को हों वे स्मृति कोई उभर आयी हो
दूर देश जो उन्हें बुलाले रहता उनका भाई हो

पता हमें करना है उनका पुख्ता कोई प्रमाण जुटा तू
इस सूनी बस्ती में ऊँची मत कोई आवाज लगा तू

सरसर- सरसर, सनसन-सनसन तेज़ हवा का ये झौंका है
खड़खड़ तड़तड़ कर पत्तों ने खामोशी को टोका है
ये कैसी आवाज़! कहाँ से , किसने, किसको लिया पुकार
“मेरी बात सुनो आगन्तुक! छोड़ो तुम ये करुण विचार
ये बस्ती मानव नगरी है मैं हूँ वृद्ध स्वर्ग का वासी
देख रहा हूँ मैं कुछ दिन से होने वाली जग उपहासी
विधि से कोई कष्ट यहाँ नहीं था ये प्रमाण सब सच्चे हैं
वतन छोड़ उनके जाने के अनुमान तुम्हारे कच्चे हैं
जो दिशा पवन अपनाती थी उस और भगे जाते थे वो
और परीश्रम के आगे कमजोर हुये जाते थे वो
धरती की रसधारों से तो वो घबराया करते थे
हाँ आसमान के अंगारे उनको ललचाया करते थे

क्या उनकी ही कर पायेगा कर्मभूमि पर खोज भला तू
इस सूनी बस्ती में ऊँची मत कोई आवाज लगा तू

संयम की प्राचीर लांघ और धर्म से हो विमुक्त
हिंसा के गलियारे से वे स्वार्थ लिये छल-द्वेष युक्त
मूल्यों की नज़र चुराकर के छोड़ यहाँ सब संस्कार
लिपटे घातों की चादर में कर प्रेमभाव का बहिष्कार
मिथ्याचारों के तमपथ पर आलोक सत्य से बचकर के
अवनत हुये जाते हैं वो गति का भावों में मद भर के
अब जिस नगरी में रहते हैं व्यवहार शील वहाँ खोते हैं
हंसने वाले सब हंसते हैं, रोने वाले वहाँ रोते हैं
अब धरती पर ही कहीँ-कहीं कुछ पिण्ड फूट जाते हैं
नभ से आग बरसती है जलस्रोत रूठ जाते हैं
युग-युग से पोषित नैतिकता तो विलाप करती है
हुई सभ्यता नष्ट-भ्रष्ट संस्कृति कहाँ बचती है

नहीं विलम्ब गर लौट सकें यह बात उन्हें बतला तू
इस सूनी बस्ती में ऊँची मत कोई आवाज लगा तू”

1 comment:

गौतम राजऋषि said...

कविता जैसी ही एक कविता...अच्छा लगा पढ़कर।

उस ग़ज़ल को भी पढ़ा दें, लगे हाथों तो आनंद आ जाये।