पहलू में आ बैठी है क़यामतों की रात
सोची बहुत है तुमने सभासदों की बात
जब आ गई दिलों में बग़ावतों की बात
तरक़ीब से होने लगी ख़ुशामदों की बात
आख़िरी चीख़ें तो कोई सुन नहीं सका
अब जो याद आती हैं हताहतों की बात !
ग़ल्तियाँ हो जाती हैं कुछ सोचकर कहो
करते नहीं हैं इस तरह ज़लालतों की बात
वाजिब-से हो चले हैं ख़यानतों के खेल
दर-दर भटक रही है अमानतों की बात
रातों पे हो रहे थे जब रोशनी के ज़ुल्म
नानी सुना रही थी तब रहमतों की बात
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6 comments:
bahut khoob likha sirji...
http://dilkikalam-dileep.blogspot.com/
बहुत सुंदर रचना
बहुत सुंदर.
आदाब !!!!!!!
बहुत अच्छी गजल।
aapki ghajal acchi lagi or jyada kuch nahi janta,mgr main bhi kuch likhte ki koshish karta hoon,samay mile to padhariyega jarur
nadaanummidien.blogspot.com par
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