Wednesday, April 21, 2010

मैं और मेरा अपना पानी

मुझे जब भी, जहाँ भी दिखा पानी
मैंने उसे उठा लिया गोद में,
पीठ पर लाद लिया, सर पे उँच लिया पानी
कंधे भर गये, हाथ भर गये घुटने बल खाने लगे
तो मैंने कलेजे में रख लिया
आँख भरली तो ज़ुबां पर बिठा लिया

मुझे जब भी, जहाँ भी मिला पानी
मैंने उसे ले लिया
हलराय, दुलराया, पुचकारा, थपकाया, चूमा मैंने
कभी मचला भी, लात मारी भी पेट पर
बाल भी नोचे
तब भी मैंने नहीं उतारा अपना पानी
और मना ही लिया उसे

मैंने आसमानों का पानी झेला
धरती से खींचा
हवाओं से सोखा
दिशाओं के पानी को कर लिया सम्मोहित
मृग-मरीचिकाओं से झपट सपनों में भर लिया
मैं खूब डूबा-उतराया मेहनत के पानी में
सूखने नहीं दिया पसीने का पानी
उसे सहेज लिया अंगोछे में
नमक के पानी को शामिल किया अपनी भूखों में

मुझे जब भी, जहाँ भी, जो भी खाली दिखा
मैंने उसमें उंडेल दिया अपना पानी
खुले कुंओं से, ट्यूब-वैल से
लाव-चड़स से, उंट-बैल से
रहट से,
रस्सी-डोल से
इंजिन-बिलजी से
नहर से, नदी से
खेतों में, क्यारियों में भरा पानी
नदियों से भरा अंजुलियों में
नली-नालों से, गड्ड़ों से भरा

पेड़-पौधों में, गमलों-बागों में, दूब में
जड़ों में,फूल-पत्तियों में मैंने भरा
तो फलों में खुद ही भर गया पानी

झील से, झरनों से,
तालाब से, तलाई से,
लौटे-डोर से नल से,
टैंकरों से, हैण्ड पम्पों से,
मटकों-घड़ों, बाल्टियों में, टबों में, चरियों में, टैंक-टंकियों में,
बरतन-बरतन में
मैंने दियों में,डिबसों में, खिलौनों में भरा
मुँह में, आँख में, कान में, नाक में,
घुटनों में, कुहनियों में, पीठ में, नाभि में भरा
मैं नहाया, डूब-डूब गया पानी में
तुमको देखा तो मेरी आँखों में उतर आया पानी

मुझसे पहले वो छुपा था धरती में
आसमानों में चढ़ा बैठा था
मैंने वर्षातों को समेटा और
घरों, छतों, गली-मोहल्लों, सड़कों में भर लिया
आंगन में, दीवारों में भरा
बजरी में, सीमेंट में, ईंट में भी
फिर मैंने पत्थर में भी भर दिया पानी
बालू में भरा, मिट्टी में भरा
मशीन में,
जब मैंने लोहे में भरा तो चीखा पानी
पर मैंने भर ही दिया तो हंसने लगा

बर्फ में था, मैंने उसे आग में भरा
चून में(आटे में), सब्जी में, स्वाद में, सुगंध में
रूखी-सूखी गोली-दवा में, दारू के गिलास में भी

अरे हाँ रे!
सर्दी में, गर्मी में भी दिन में और रात में भी,
मैंने ठंड़ा पानी भरा, गरम-गुनगुना भरा
लौटे में भरा शीतल पानी
और बैठा रहा राह में राहगीरों की
चिड़ियों के लिये भरा फूटे मटकों में
ढोरों के लिये खेल-कोठों में
मछलियों के लिये समन्दर भरे
रेगिस्तानों के लिये प्याऊ में

मेरे साथ हमेशा रहा पानी
चुल्लू में, आँख में, बोली में, हंसी ठिठौली
मेरे स्पर्श में,
लड़ने-झगड़ने में भी, रूठने-मनाने में भी था

माँ ने मुझे बनाया था तरल खून से
दूध से नहलाया था
मेरी जड़ों को सींचा था पानी से
मैं हमेशा रहा पानी में, पानी हमेशा रहा मुझमें
पिता की छाया में था पानी

मैं जब भी, जहाँ भी, जिधर भी, जिसे भी देखता हूँ
सूखने लगा है पानी,

पेड़-पौधों में, जड़ों में, फूल-पत्ती में, दूब में
रंगो में, हरे में, न लाल में
खेल-कोठों में, न टूटे मटकों में
कहीं नहीं है पानी
खाली हैं लौटे, खाली हैं चुल्लू
मृग-मरीचिकाओं तक से उड़ गया पानी

बरतनों में सूखने से पहले वह सूख गया कुंओं, हैण्डपम्पों में, नलों में
खेतों में सूखने पहले वह सूखा नहरों-नदियों में, धरती में
बरसातों में सूखने से पहले पातालों में
शब्दों में सूखने से पहले बोली में
आँखों से पहले कलेजों में सूखा
आँचलों में सूख गया जडों से पहले
पिताओं में सूखा है बेटों से पहले
समन्दरों से पहले नदियों में सूखा
नदियों से पहले वर्षातों में
वर्षातों से पहले ऋतुओं में
ऋतुओं से पहले काल(समय) में सूखा पानी
समय से पहले, बहुत पहले
मनुष्यों में सूखा पानी

एक सपना देखता हूँ
कि फिर से बढ़ सके, फल-फूल सके
कि फिर कभी चप्पे-चप्पे में,
खांचे-खांचे में भर जाये पानी
जैसे हिलौरें मारता था मेरी आँखों में कभी
वैसे ही तटों से हुजलता रहे कभी मेरी संततियों के
सोचता हूँ
जो बचा है थोड़ा-बहुत पानी
उसे उंडेलता चलूं मूल स्रोत में
अपनी संततियों की जड़ों में रीता दूं अपना हृदय
आँखे रीता दूं उनकी आँखों में
बोली को उल्टाकर खाली करदूं उसकी नमी नई भाषा में
कि लगादूं पानी के वृक्ष
जिन पर कभी तो लगें पानी के फल

5 comments:

संजय भास्‍कर said...

कभी मचला भी, लात मारी भी पेट पर
बाल भी नोचे
तब भी मैंने नहीं उतारा अपना पानी
और मना ही लिया उसे



इन पंक्तियों ने दिल छू लिया... बहुत सुंदर ....रचना....

M VERMA said...

कि लगादूं पानी के वृक्ष
जिन पर कभी तो लगें पानी के फल
पानी सी नम रचना
अद्भुत फ्लो
सुन्दर

सुशीला पुरी said...

तर करती संवेदना ........

Rangnath Singh said...

आपकी लिखी जितनी भी कविताएं मैंने पढ़ी है उसमें यह बेहतरीन में से एक लगी।

Unknown said...

nice