Thursday, May 7, 2009

आतंकवाद - कांधार

चुनाव का आज चौथा चरण सम्पन्न हो रहा है। इस चुनाव में आतंकवाद भी एक मुद्दे के रूप में उभरा। बंबई हमले में कांग्रेस सरकार की सफलता-विफलता के साथ भाजपा सरकार द्वारा कंधार में छोड़े गये आतंकवादियों की विशेष चर्चा हुई है। आज अपनी डायरी पलटते हुए मुझे उस समय की अपनी लिखी हुई एक कविता मिल गई। सोचा क्यूं नहीं इसे पोस्ट कर दिया जाये! कविता से पहले कुछ विचार कुनमुना रहे हैं वह भी लिख देता हूँ। चुनाव में जो पढने-सुनने को मिला उसमें कुछ इस तरह की बातें हैं-
भाजपा कहती हैं कि कांग्रेस आतंकवाद पर कमजोर है, उसने पोटा हटा दिया, अफलज को फांसी नहीं दी जा रही है।
कांग्रेस कह रही है कि भाजपा के समय कई सारी आतंककारी घटनायें हुई हैं, संसद पर हमला हो गया, उसने अपहृत विमान को चंडीगढ़ में नहीं रोका बल्की तीन खूंखार आतंककारियों को जंवाई की तरह जसवंत सिंह छोड़ने गये। जबकि इंदिरा जी और राजीव जी आतंकवाद से लड़ते हुए शहीद हो गये। कांग्रेस ने आतंकवाद के सामने कभी घुटने नहीं टेके जबकि भाजपा ने टेके हैं, बंबई हमलों के बाद मजबूत प्रधानमंत्री के सामने पाकिस्तान को विवश होकर मानना पड़ा कि आतंककारी पाकिस्तानी थे। यह कांग्रेस की उपलब्धि है।
दोनों दलों का जोर-उपलब्धि कमोबेश यही है।
मैं कंधार वाली घटना को याद करता हूँ तो कुछ तथ्य इस तरह से हैं, आतंकवादियों ने विमान चण्डीगढ़ हवाई अड्डे पर उतार कर ईंधन मांगा, ईंधन के बहाने कमाण्डो कार्यवाही की तैयारी की गई लेकिन पट्टी पर जीप देखते ही आतंककारियों को शक हो गया, वे बिना पैट्राल लिये ही जहाज उड़ा ले गये ठेठ कंधार, बीच में एक यात्री की उन्होंने हत्या भी करदी। कंधार पर उन दिनों तालिबान का राज था वहाँ भारत सरकार को किसी तरह की सहायता की कल्पना करना भी व्यर्थ है। यही तालीबान जो आजकल पाकिस्तान में है – देख लीजिये। घटनाक्रम कई दिनों चला, अपहृत यात्री लगभ 160 थे, चैनलों पर उनके परिजन दिनभर रुदन करते देखे जाते थे, प्रधानमंत्री निवास तक चैनलों के वाहनों में वे जाकर प्रदर्शन करते थे और उसका लाइव प्रसारण होता था। सारे देश का माहौल गमगीन था, यात्रियों की जान में न केवल परिजनों की बल्कि सारे देश की सांसे अटकी हुई थीं। सर्वदलीय बैठकें हुई थीं, देश की जनता की भावना को देखते हुए कांग्रेस समेत कोई भी दल यात्रियों की जान को जोखिम में डालने की बात जबान पर न ला सका, बल्कि बहुत दिनों बाद तक भी न ला सका। सबने सरकार के निर्णय को समर्थन दिया। जबकि मुफ्ति मो. सईद की एक बेटी के बदले भी आतंकारी कांग्रेस के शासन में छोडे जा चुके हैं। अब पता नहीं क्यूं आडवाणी कहते हैं कि उन्हें जानकारी नहीं थी। आतंककारी छोडने के लिए जसवंत सिंह साथ गये, इसे यूँ भी देखा जा सकता है कि तालिबान की धरती पर जान जोखिम में डालकर जसवंत सिंह देश के 160 नागरिकों को लेने पहुँचे। उस समय तो यही कहा गया था आपात स्थिति में कोई निर्णय लेना पड सकता है, अतः विदेशमंत्री साथ गये हैं। इस घटना के बाद, सबक लेते हुए तत्कालीन सरकार नें कानून बनाया था की किसी भी अपहृत विमान को देश की सीमा के बाहर नहीं ले जाने दिया जायेगा और उसे मार गिराया जायेगा, भावनात्मक समस्या पैदा होने से पहले ही। अब कांग्रेस कहती है कि वह आतंककारियों को नहीं छोड़ती इसका मतलब निकलता है कि उस स्थिति में जब आप देश के 160 नागरिकों को बचा सकते थे, उन्हें मरवा देते।क्या राहुल गांधी अपने विचार उस विधवा से साझा करना चाहेंगे, जो उस विमान में ही विधवा हुई थी। फर्ज कीजिये मेरा कोई प्रियजन उस विमान में रहा हो तो आज यह बयान सुनकर मुझे कैसा लग रहा होगा! पिछेले दिनों देश में ताबड़तौड़ बम फूटे हैं, संख्या की दृष्टि से भी और मरने वालों की दृष्टि से भी यह केन्द्र सरकार के लिए अपनी पीठ थपथपाने वाली बात कैसे हो सकती है? फिर भी पूरा माहौल ऐसा कह रहा है जैसे केवल मुंबई हमला ही एक घटना घटी है, और जिसमें भी सरकार ने पाकिस्तान को पता नहीं कितना विवश कर दिया है जो देश की जीत है? इस घटना का मुकाबला भी सरकार ने कैसे किया जरा गौर कीजिये- अभी तक यह भी स्पष्ट नहीं है कि मरने वालों में कितने सुरक्षा बलों की गोली से और कितने वास्तव में आतंकवादियों के गोली से मरे हैं? घटना के कई दिनों बाद तक जहाँ से सुरक्षाकर्मी सैकडों बार निकले होंगे वहाँ बम बरामद होते रहे, गनीमत है फटे नहीं। एक मात्र आतंकवादी पकड़ा गया वो भी किसकी बहादुरी से और कैसे, बडे-बडे तीसमार खाँ वैसे ही खां म खां मारे गये। पाकिस्तान सरकार ने मान भी लिया कि कसाब उनका नागरिक हो सकता है, आतंकवादी उनकी धरती से आये हो सकते हैं, तब भारत को क्या मिल गया। क्या पाकिस्तान ने मान लिया कि वहाँ की सरकार या आई.एस.आई. इसमें लिप्त रही है, या उसके यहाँ बाकायदा ट्रेनिंग कैम्प चलते हैं और उनमें से एक भी बंद होने जा रहा है। या उसने एक-आध आतंककारी को भारत को सौंप दिया है। वस्तुतः दोनों सरकारों का काम करने का ढ़ग एक जैसा ही है। जैसे आतंकवाद से लड़ते हुए इंदिरा जी और राजीव जी मारे गये ऐसा नहीं होना चाहिए लेकिन ऐसे शहीद होने में कुछ भी करना नहीं पड़ता है, सिवाय आतंकवाद को पनपाने, पनपने देने के। बल्कि संसद पर हमला और उक्त नेताओं के मारे जाने की घटना तो आतंकवाद के सामने एक राष्ट्र की घोरतम विफलता के सबूत हैं। खैर कविता पढियेगा-----
कंधार की उस रात के संदर्भ

श्मशान हुए अंधेरों के बीच
जब रो रहे थे कुत्ते
तब उनके रोने और भयावह आशंकाओं के बीच
अपने सिरों को धड़ों से उतारकर हाथों में लिये खड़े कुछ मनुष्य
रट लगाये हुए थे
हिंस्र पशुओं की इच्छाओं को मुक्त किये जाने की
वे भूल रहे थे शताब्दियों के मिलने के क्षण
कि जिन रोशनियों से धुल जाने वाली थी कालिख
उसे बेचा जाना था काले रंग के डिब्बों में
और खरीददारों को कैद कर लिया गया
कंधार के हवाई अड्डे पर
जहाज में यदि चलती गोली, फूटते बम
तो बाजार होता था चौपट
और यदि हिंस्र पशुओं को किया जाता मुक्त
तो वे निगल जाते समूची रोशनी

एक महिला बहुत बुरा बना लेती थी अपना मुंह
करते हुए देश की रक्षा-नीति की चर्चा
चलो यूँ ही मान लेते हैं कि अपने चैनल
बेचते नहीं हैं खूनी घटनाओं को
वो तो घटना का सजीव, सीधा और विश्लेषित चित्र
प्रसारित करते हैं देश की जनता के समक्ष
वो तो महज वर्ष भर काम करने वालों के लिए विश्राम का बहाना
और वर्ष भर निठल्ले बैठे रहने वालों के लिए काम का अवसर देते हैं
महिला जाते हुए देती है धन्यवाद कि उसका चेहरा दिखाया गया

अंततः एक राष्ट्र
एक लोकतंत्र
संसार की एक सबसे अच्छी सेना
विधवाओं की बद्दुआ, युवाओं का आक्रोश
सत्ताधारियों के समूचे प्रयास, विपक्षियों के व्यंग्य
मित्रों का सहारा और दबाव
सबके सब परास्त हो गये एक बाज़ीगर और उसके जमूरों के समक्ष

कंधार की उस रात के संदर्भ में थे
कई समझौते और कई तख्तापलट
कारगिल और सियाचीन, गिलगित और लद्दाख
पुरुष प्रधानमंत्रियों से लेकर महिला प्रधानमंत्रियों तक
आजादी के अगुआओं से लेकर गरीबी के पिछुआओं तक
विश्वासघात भी थे, शांति के प्रयास भी
उस रात के, उस अंधेरे में, उस अड्डे पर
मौजूद थे परमाणु परीक्षण
बेशर्मी और बलिदानी धैर्य सब साथ-साथ थे
उसी समय, उसी जहाज में व्याप्त था भय, पसरा था मौन
कायम थी शांति।

सत्य से उठने लगी थी दुर्गंध
कंधार की उस रात के संदर्भ में था
सड़ांध मारता सत्य।

3 comments:

Arvind Mishra said...

आपकी ईमानदार प्रस्तुति ने पूरा मंजर ही मानों जीवंत कर दिया ! बहुत अच्छी प्रस्तुति !

अक्षत विचार said...

सच्चाई जाहिर करने के लिये साधुवाद दरअसल मीडिया दुधारी तलवार बन गया है न करो तो मुश्किल और करो तो मुश्किल और इसी का परिणाम है कंधार मसले पर की जा रही राजनीति

O.L. Menaria said...

प्रीतिश जी,
पता नहीं आडवानी जी व् उनकी पार्टी के लोग किस अपराध बोध से ग्रसित लगे की कंधार मामले में बचाव की मुद्रा में आगये जैसे उन्होंने सर्व दलीय सहमती, बंधकों के रिश्तेदारों के दबाव एवं मीडिया द्वारा बंधकों के पक्ष में बनाये गए जबरदस्त भावनात्मक दबाव में आकर बड़ा गलत निर्णय कर लिया जब की वास्तव में उस वातावरण में किसी भी दल की सरकार होने पर भी बंधकों को आतंकवादियों के हाथो मरने देने की हिम्मत नहीं थी. यह भी सही है की मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी के बदले आंतकवादी को पहले छोड़ने की परंपरा कायम की गयी थी. आडवानी जी को मजबूती से यह बात रखनी चाहिए थी तथा मीडिया जो अपने को प्रजातंत्र का चोथा स्तम्भ मानता है उसको निष्पक्षता से यह बात जनता के सामने रखनी चाहिए थी. केवल एक पक्ष द्वारा कही गयी बात को बार बार उछालने से मीडिया के कर्त्तव्य की इती श्री नहीं हो जाती. इसके साथ सभी जानते है की पंजाब में भिंडरावाला का पोषण किसने किया? श्रीलंका के प्रभाकरन को धमकाया किसने तथा अपने अहम् व् ताकत के प्रदर्शन में शांति सेना श्रीलंका में क्यों जोंकी गई एवं बिना कोई सार्थक जीत के उसे वापस बुलाने को क्यों बाध्य होना पड़ा? एवं इस प्रकार के अपरिपक्व कदम से देश को कितना नुकसान उठाना पड़ा? आपका आलेख सुन्दर है.