Thursday, December 17, 2009

आज़ाद लोग, कहानियाँ, क़ाग़ज

आज़ाद लोग


उसने
कुछ लोगों के
हाथ जकड़े, पैर बांधे
आँख – कान बंद किये
नाक में घुसेड़ दी हवा, बदबू
मुंह में ठूंस दिये शब्द, झूठन
और दिमाग़ खुला छोड़ दिया
वे खुश थे कि
उनका दिमाग़ खुला है

उसने
कुछ लोगों के
हाथ –पैर खोले
कान साफ़ किये
आँखे धोयीं
मुंह में दी ज़बान
नाक पर फूल रखे
और मस्तिष्क का घेर कर बैठ गया
वे खुश थे कि वे आज़ाद हैं

और इस तरह वह जिसे लोगों को काबू में रख
खुद करनी थी मनमानी
पूरी उम्र कुछ न कुछ पकड़े – जकड़े बैठा रहा





कहानियाँ

ज़िदंगीभर चैन नहीं लेने देतीं
कपूत कहानियाँ

प्रतीकों, बिम्बों के आभूषणों से लदी-पदी
खोयी खोयी-सी, कल्पनाओं में डूबी
प्रेमिका-सी होती हैं कहानियाँ
और प्रेमकाओं सी ही नकचढ़ी भी

बड़ा व्यावहारिक-सा, बड़ा आधुनिक-सा संबंध
रखती हैं कथाकार से
करती रहती हैं टालमटोल
नहीं होती हैं कभी-कभी तैयार ज़हन में आने को
बिना घूस लिये

करमजली हैं, खून पीती हैं
जनम से ही शनीचरी होती हैं कहानियाँ

हमेशा रख देती हैं पहले कुछ-एक शर्त
बड़ी चौकन्नी होती हैं, तुरन्त हड़ताल कर देती हैं,
विचारों से बग़ावत करती हैं, शब्दों से तोड़फोड़
नहीं लौटती हैं काम पर बिना समझौते के
उपद्रवी कहानियां

कुछ-एक पुरानी तो
अपराधी नेता सी करती रहती हैं नेतृत्व
और कुछ महत्वाकांक्षी कार्यकर्ता सी
करती रहती हैं चापलूसी
दल-बदल भी कर लेती हैं कभी-कभी

पश्चिमी धारा का विरोध करती
अपनी ज़मीन से जुड़ी रहती हैं विपक्षी कहानियां
उदारीकरण के फायदे सी होती हैं
कर्ज़ में डूबी सत्तासीन सरकारी कहानियाँ
लोकतान्त्रिक राजनीति करती हैं
गठी-बंधी धर्मनिरपेक्ष कहानियाँ

ब्याहता हुक़्म चलाती हैं
और कुंआरी कभी सिर नहीं ढकतीं
शराबी हैं, सिगरेट पीती हैं, व्यभिचारी हैं
शील को छेड़ती हैं, सीटी बजाती हैं
देर रात तक भी घर नहीं लौटतीं
लफंगी कहानियां
और बुढ़ापे-सी कुढ़ती रहती हैं
अवकाश प्राप्त कहानियाँ

अब नहीं पनप पाती हैं
जिज्ञासी, अबोध, दुधमुंही रूठतीं, नाचतीं,
ज़िद करतीं, खेलती हुई
छोटी-छोटी सुंदर-सरल कहानियाँ


क़ाग़ज

१. क़ाग़ज हवाओं से लड़ते हैं / आंधियों से संघर्ष करते हैं
यहाँ तक कि चक्रवात से भी उलझ जाते हैं
क़ागज जो हमारे हाथों की पकड़ से मुक्त हो जाते हैं

२. क़ाग़ज यहाँ गिरते हैं / वहाँ उड़ते हैं / टकराते हैं खम्बों से, पहाड़ों से
आसमान तक जाकर भी लौट आते हैं
घने फैले और कम वजन वालों की नहीं होती कोई अपनी जगह

३. क़ाग़ज कटे हुए / भीगे / चिथे हुए / गंदे क़ाग़ज
अधजले गुमनाम क़ाग़ज / रद्दी में बिके क़ाग़ज
कचरे के ढेर से भी घर लौट आते हैं काम के क़ाग़ज

४. क़ाग़ज जो सिर्फ़ जगह घेरते हैं / पुराने पड़ जाते हैं काम निकालकर
अगर बहुत बढ़ जाते हैं बेकाम क़ाग़ज
या तो बिक जाते हैं या जला दिये जाते हैं रद्दी क़ाग़ज

५. क़ाग़ज जो बेवफ़ाओं को लिखे जाते हैं / हाथों से छूटते ही नहीं
सीने से लगकर भीग जाते हैं आंसुओं में
क़दमों में गिरे रहते हैं, दूर नहीं जाते उड़कर
बहुत वफ़ादार होते हैं प्यार के क़ाग़ज

4 comments:

Rajeysha said...

वाकई ऐसी ही आजादि‍यों में लोग खुशि‍यां मना रहे हैं, रोज 8 10 घंटे की गुलामी के बाद भी।

शोभित जैन said...

कागज सीधे दिल में उतर गया भाई

Rangnath Singh said...

आजादी के दूषित अर्थ को सटीक पकड़ा है। मुझे पहली कविता ज्यादा अच्छी लगी

DUSHYANT said...

apke yahaan aanaa sukhad lagaa hai ! shukriya!