हे सुमुखी! अब इस जीवन में आधार तुम्हारा चाहता हूँ
मैं खूब बिका, मैं खूब लुटा जग को अपनाकर देख लिया
मैं खिला फूल बन बगिया में भ्रमरों का गुंजन देख लिया
मैं हो न्यौछावर कामां पर वेणी का श्रंगार बना
था भूपित का सेवक माली तब मैं कंठों का हार बना
है छोटा सा जीवन मेरा बस एक सहारा चाहता हूँ
हे सुमुखी! अब इस जीवन में आधार तुम्हारा चाहता हूँ
मैं तिनकों की ज्यूं बिखर गया इन हाथों से उन हाथों में
मैं भूल गया अपनी पंक्ति जब रहा बहुत से साथों में
था बीच भंवर तूफान जहाँ वहीं विधि ने मुझको डाल दिया
मैं फिर कण-कण में छिटक गया मुझको न किसी ने जाल दिया
हो लहर-लहर मैं घूम रहा अब एक किनारा चाहता हूँ
हे सुमुखी! अब इस जीवन में आधार तुम्हारा चाहता हूँ
है कब से डोल रही नैया पतवार नहीं आया अबतक
कितने ही किनारे आये, कोई किश्ती को नहीं भाया अबतक
चन्दा को चकोरी ढूंड़ रही, पंछी भटके हैं नीड़ नहीं
मैं भी पल-पल यूँ सोचूं हूँ क्यूं मेरे जीवन में भीड़ नहीं
थकहार चूर अपने पथ पर घर एक बनाना चाहता हूँ
हे सुमुखी! अब इस जीवन में आधार तुम्हारा चाहता हूँ
जब-जब मन में तूफान उठे नहीं मुख पर कोई बात आयी
कांटों से बिन्धित अंगों से जब रुधिर धार बह ही आयी
मैं पत्थर की ज्यूं शिथिल रहा नहीं दर्द कभी महसूस किया
अपना अन्तर सुख भी मैंने निज हाथों निज से दूर किया
अपनी पीड़ा का अश्रु बहा अहसास करना चाहता हूँ
हे सुमुखी! अब इस जीवन में आधार तुम्हारा चाहता हूँ
Sunday, February 14, 2010
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3 comments:
सुमुखी.....बहुत प्यारा गीत है।
अपनी पीड़ा का अश्रु बहा अहसास करना चाहता हूँ.बेहतरीन रचना बहुत पसंद आई शुक्रिया
बहुत अच्छी लगी आपकी रचना । बधाई
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