जोरदार ठंड़ हो
रात हो, अकेले हों
सर पे न छत हो,
बदन पे न कंबल हो
घुप्प अंधेरे में बढ़ रहा कोहरा हो
तो ठंड़ यूं भगाईये-
गीत जोर-जोर से कोई गुनगुनाईये
अक्कड-बक्कड़ कुछ भी गाईये
धीरे-धीरे से शुरूकर चीखिये-चिल्लाईये
या बीड़ी हो पास तो उसको सुलगाईये
अद्दा पूरा
एक ही घूँट में गटकाइये
हो नहीं तो भी
दौड़-दौड़ खेत के
सारे जानवर भगाईये
दण्ड़ कुछ इस तरह
आप पेल जाइये
एक से शुरूकर
गिनती भूल जाईये
सुबह होने से पहले
न थकिये, न लड़खड़ाईये
ज़िदगी बचानी है तो
गिर मत जाइये
पहर के तड़के ही
दीनू के अलाव पर जाईये ही जाईये
हाँ तो फिर वहाँ-
ठंड़ की ही चर्चा में घुलमिल जाईये
आगे से तापिये तो पीछे से गल जाईये
दीनू काका, बाबा, ताऊ, फूफा, छोरा, भाई
सब के सब हुक्का पीते जाईये
शंकरा महाराज को जाते देख टोकिये-
"ताप ल्यो महाराज, जाड़ो बहुत जोर पै है
इत्ते सुबह काहे निकसे, दिन तो निकरे देते
ढंग को कछु पहन्यो नांई
बीमार पड़ जाओगे
मिसरानी मांईं कूं आफत में लाओगे"
फिर
धुन भंग होने पर -
मिसर महाराज का ठिठक के, दूर ही रुक जाना
कुरते की जेब में हाथ चुपके से पहुंचाना,
मुडे -तुडे नोटों को टटोल के
गरमी खींच लेना
और
"हाँ भाई! ठंड़ बहुत है"
बोल के
तेज-तेज कदमों से रास्ते पर जाते
दूर तक देखिये
और जब दीनूं काका
जोर से मिसर को सुना के कहे-
"मिसर कूं ठंड़ ना लगे भई
नोटन की गरमी है मिसर कै"
शंकरा महाराज की चाल को और तेज होती देख
आप भी ठहाका लगाईये
ठंड़ दूर भगाईये
(ठंड़ में जब दांत किटकिटाते हैं तो स्वर दीर्घ हो जाते हैं)
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1 comment:
ठण्ड और उसे भगाने का तरीका विलक्षण है...कमाल की रचना...
नीरज
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