खूंटी
अपने ही खण्डहर में
खोजते हुए वास्तुकला
मैं पा जाता हूँ अपना भव्य अतीत
जिसके स्मति सुख में
जीत लेता हूँ वर्तमान की प्रत्येक चुनौती
प्रगति की चाह में
जहाँ गिरा था लड़खड़ाकर
और तब्दील हो गया था अपने मकबरे में
मैं कामयाब हो सका एक स्वप्न देखने में
जिसमें उभरीं एक-इक कर पिछली घटनायें
जो कुछ तहों के बीच धुंधली अवश्य हो गयी थीं
मगर थीं सुरक्षित
विगत आज भी था तैयार हर अनागत के स्वागत को
अगर मैं लौट सकूं !!!
कह रहा था अतीत मेरा “असम्भव सदा असम्भव रहा है
तुम नहीं लौट सकोगे, रुके रहे तो हो जाओगे अतीत
ढूँढ़ो अपने मंदिर की नींव”
मैं मुश्किलों से हो जाता हूँ तैयार
करने को वही उपक्रम
जो हारे को साबित करता है विजेता
नींव का मिलना आज भी उतना ही सहज है मेरे देश में
लेकिन उठती हुई दीवार की ईंट पहचानने के लिये
अपेक्षित है एक प्रस्तर-भेदी दृष्टि
जो समाहित होती है मेरी आँखों में कौंधकर
छूते ही एक जाना-पहचाना-सा स्पर्श
किसी टूटी हुई चिकनी वस्तु पर
जिसकी चुभन रक्तस्राव के लिये चीर तो दे नसें
लेकिन न दे कोई पीड़ा, न दे आह
फिर न पड़े किसी आह पर किसी महल की नींव
धिक्कार! यदि वहाँ पहुँचकर भी मैं ढूँढ़ता हूँ वही खूंटी
जिसपर टांगते आये हैं हम वर्षों से आदर्श
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1 comment:
प्रभावशाली रचना. आत्ममंथन करती हुई.
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