Wednesday, March 17, 2010

भारत में धर्मनिरपेक्षता और उसकी लाक्षणिकता

मेरा विषय धर्मनिरपेक्षता का विवेचन या उसके संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या करना नहीं है। मेरा विषय तो भारत में धर्मनिरपेक्षता के बिगडैल स्वभाव, उसके संकुचित दृष्णिकोण और धर्मनिरपेक्षता की गलत व्याख्याओं से परिचय कराना ही है। इसी प्रयास में थोड़ा संविधान की भावना के अनुसार धर्मनिरपेक्षता के स्वरूप की चर्चा यहाँ की जा रही है। धर्मनिरपेक्षता की राजनीति की चर्चा मैं यहाँ भूलकर भी नहीं करने जा रहा। भारत का तथाकथित सैक्यूलर धर्मनिरपेक्षता के मुद्दों पर कब मौन रहेगा, कब मुखर होगा, कब कटु, कब हिंसक, कब औपचारिक प्रतिक्रिया देगा, किस मुद्दे को धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा बना देगा और किस को इसकी परिभाषा में नहीं मानेगा !! यह विषय यहाँ नहीं लिया जा रहा है।

भारत से बाहर धर्मनिरपेक्षता का आशय उस अर्थ से सर्वथा भिन्न् है जिस अर्थ में और जिस भावना के साथ भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता को ग्रहण किया गया है। पश्चिमी देशों में धर्मनिरपेक्षता के लक्षणों में आधुनिकता, ज्ञान-विज्ञान एवं सामाजिक क्रांतिकारिता अनिवार्य हैं। जबकि भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता धार्मिक भेदभाव व धार्मिक-साम्प्रदायिक टकराव के निषेध तक सीमित है। पश्चिमी देशों में धर्मनिरपेक्षता जहाँ व्यक्ति पर लागू होती है वहीं भारत में धर्मनिरपेक्षता मूलतः राष्ट्र की विशेषता है, यह वक्तियों पर केवल उसी  हद तक लागू होती है जहाँ तक वह राष्ट्रीय धर्मनिरपेक्ष भावना से बराबरी के स्तर तक आ जाये। इससे आगे की यात्रा में वह प्रगतिशीलता कहलायेगी।

भारत संवैधानिक रूप से एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। हालांकि संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द एक संशोधन द्वारा दर्ज किया गया है लेकिन भारत एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र होगा यह 1947 से ही सुनिश्चित था जब धार्मिक आधार पर भारत का विभाजन होकर पाकिस्तान का निर्माण हो चुका था जो कि एक मुस्लिम राष्ट्र बना। इसी आधार पर कुछ लोगों द्वारा भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित किये जाने की माँग उठी जिसे तत्समय ही अमान्य करार दे दिया गया था। इसलिये भारत के धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होने में किसी प्रकार के संशय की या वैचारिक भिन्नता की गुंजाइश नहीं है, न कभी रही है।

संविधान में धर्मनिरपेक्षता के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। संविधान के अनुसार भारत का कोई राष्ट्रीय धर्म नहीं होगा। वह सभी धर्मों के साथ समान सम्मान का व्यवहार करेगा। हालांकि भारत का राष्ट्रीय धर्म कोई नहीं होगा लेकिन वह अपने नागरिकों को यह महत्त्वपूर्ण अधिकार व स्वतंत्रता प्रदान करता है कि वे किसी भी धर्म में आस्था रख सकते हैं, अपने धार्मिक रीति-रिवाजों के अनुसार पूजा-पाठ कर सकते हैं तथा अपने धर्म का प्रचार-प्रसार करते हैं। भारत के प्रत्येक नागरिक को धार्मिकता का संवैधानिक अधिकार एवं स्वतंत्रता है। लेकिन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण यह है कि भारत का कोई राष्ट्रीय धर्म नहीं होगा अतः सरकारों का चरित्र पूर्णतया धर्मनिरपेक्ष होगा। वे प्रत्येक धर्म के साथ समान व्यवहार करेंगी। अतः पक्षपातहीन धार्मिक सम्मान का व्यवहार ही भारत के संदर्भ में धर्मनिपेक्षता का वास्तविक चरित्र है। संविधान भारत के नागरिकों से यह अपेक्षा भी करता है कि वे धर्मनिरपेक्षता की भावना के साथ अपने धर्म के समान ही अन्य धर्मों का आदर करेंगे तथा किसी प्रकार का धार्मिक टकराव पैदा नहीं करेंगे। अतः एक भारतीय नागरिक अपनी धार्मिक आस्थायें सखते हुये भी संविधान की भावना के अनुसार पूर्णतः धर्मनिरपेक्ष हो सकता है।

प्रश्न उठता है कि क्या संविधान भारतीय नागरिक को नास्तिक होने की स्वतंत्रता का अधिकार देता है? हाँ देता है, संविधान धार्मिक आस्था रखने की स्वतंत्रता देता है न कि बाध्यता। दूसरा प्रश्न, यह भी उठता है कि क्या संविधान धर्म की निंदा करने की स्वतंत्रता देता है? नहीं, भारतीय संविधान अपने धर्मनिरपेक्ष स्वरूप में तो धर्म की निंदा का अधिकार अपने नागरिकों को नहीं देता है। संविधान की भावना के अनुसार सभी धर्मों से समान व्यवहार का आशय आदर का व्यवहार करना है। तीसरा प्रश्न उठता है कि क्या भारत में धर्म की निंदा की ही नहीं जा सकती क्या वह धर्मनिरपेक्षता की भावना के अनुकूल होगी ? यहाँ यह महत्त्वपूर्ण है कि अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार के तहत् भारत में धर्म की तर्क संगत निंदा की जा सकती है। यहाँ तक कि किसी धर्म के पूजा-पाठ या कर्म-काण्ड पद्धति लोक स्वास्थ्य या सदाचार के विरुद्ध है तो राष्ट्र हस्तक्षेप भी कर सकता है, अर्थात उसे प्रतिबंधित भी कर सकता है। एक प्रश्न यह उठता है कि क्या राष्ट्र धर्म को किसी प्रकार की सहायता भी कर सकता है ? हां, संविधान में स्पष्ट प्रावधान है कि राष्ट्र अल्पसंख्यक धर्मों को उनके शिक्षण संस्थान चलाने के अधिकार के साथ उन्हें सहायता भी मुहैया कराता है। संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 तक में अन्तःकरण की और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता प्रदान की गई है। यही नहीं, अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों के लिए अनुच्छेद 29 में उपबन्ध किया गया है कि राज्य उन पर सम्प्रदाय की अपनी संस्कृति से भिन्न कोई संस्कृति अधिरोपित नहीं करेगा तो अनुच्छेद 30 प्रतिपादित करता है कि अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों को अपनी रूचि की शिक्षा-संस्थाओं की स्थापना व प्रशासन का अधिकार होगा और राज्य ऐसी शिक्षा संस्थाओं को सहायता देने में अल्पसंख्यक वर्ग की शिक्षा संस्थाओं के विरूद्ध इस आधार पर विभेद नहीं करेगा कि वह किसी धार्मिक समुदाय के प्रबन्ध में हैं। अतः स्पष्ट है कि किसी भी रूप में भारतीय धर्मनिरपेक्षता या तटस्थता नकारात्मक नहीं वरन् सकारात्मक है। धर्मनिरपेक्षता के अर्थों में संविधान का अनुच्छेद 15 धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर किसी भी प्रकार के विभेद का निषेध करता है। इस प्रकार भारतीय धर्मनिरपेक्षता अपने संवैधानिक रूप से सकारात्मक रूप में सर्वधर्मसमभाव का ही दूसरा नाम है। वह  सहिष्णुता, शांति, अहिंसा, सामंजस्य व समन्वय, निरन्तरता एवं विकास का सम्मिलित रूप है।
     
तब! धर्मनिरपेक्षता के प्रावधानों और संविधान की भावना के अनुसार भारत में क्या किसी धर्म या किसी खास धर्म का अपमान किया जा सकता है, तब क्या वह धर्मनिरपेक्षता की भावना के अनुकूल होगा? नहीं, भारतीय संविधान किसी भी रूप में धर्म के अपमान की इजाजत नहीं देता। क्या भारतीय संविधान के अनुसार नास्तिक होना ही धर्मनिरपेक्षता का अनिवार्य लक्षण है ? नहीं, धर्मनिरपेक्षता धार्मिकता का निषेध नहीं करती है, बल्की धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा धर्म के अस्तित्व के साथ ही जुड़ी है। क्या भारतीय संविधान धर्मनिरपेक्षता की कसौटी पर नास्तिकता को धर्म की तुलना में अधिक महत्त्व देता है? नहीं, भारतीय संविधान नास्तिकता और धर्म में भी कोई भेद नहीं करता है।

उक्त मानकों के आधार पर देखें तो आज देश में धर्मनिरपेक्षता का वास्तविक स्वरूप संविधान की मूल भावना के अनुरूप नहीं है। देश का प्रबुद्ध बुद्धिजीवी वर्ग एक प्रतीकात्मक धर्मनिरपेक्षता का वरण करता है, और उसी की काँव-काँव कर स्वधन्य होता है। भारत में तथाकथित धर्मनिरपेक्ष वर्ग के द्वारा रचा गया सेक्यूलर संसार धर्मनिरपेक्षता के कुछ प्रतीक रचकर उनको इतना मजबूत और विशालकाय बना चुका है कि उसे खुद भारतीय संविधान की मूल भावना का साक्षात्कार असंभव हो गया है। भारतीय सेक्यूलर की आँख कुछेक प्रतीकों से इतनी आच्छादित हो चुकी है कि उसमें धर्मनिरपेक्षता के सूक्ष्म बिम्म समाहित होने के लिये जगह ही नहीं है। भारत में आज कोई भी वक्ति इन खास-खास प्रतीकों को छूकर ही खुद को धर्मनिरपेक्षता पुतला महसूस कर सकता है।

व्यवहार में पायी जाने वाली भारतीय धर्मनिरपेक्षता, जिसका जिक्र और बोलबाला हमारे समाचार पत्रों, बुद्धिजीवियों की गोष्ठियों और साहित्य में पाया जाता है, के रचना संसार के मुख्य स्थापित प्रतीक इस तरह हैं-
  1. नास्तिकताः भारतीय सेक्यूलर वर्ग ने नास्तिकता को धर्मनिरपेक्षता का पर्याय की तरह महिमामण्डित कर दिया है, अब कोई धार्मिक आस्थावाला व्यक्ति सेक्यूलर नहीं कहला सकता है। बल्कि धर्म को मानने वाला प्रगतिशील भी सेक्यूलर जमात में अपने को संकुचित महसूस करता है।
  2. कोई व्यक्ति और कुछ करे या न करे यदि वह नास्तिक है तो बहुसंख्यक समुदाय के धर्म की व्यक्तिगत तथा सभी धर्मों की वायवीय अंध आलोचना, निंदा और अपमान कर वह धर्मनिरपेक्ष कहला सकता है।
  3. अल्पसंख्यक समुदाय का अंध समर्थन सेक्यूलरिज्म का प्रतीक है। इसमें उनके धर्म, रीति-रिवाज, प्रगति विरोधी विचार, कर्मकाण्ड यहाँ तक कि बहुसंख्यक धर्म के विरुद्ध उनके अभियान, उनकी दुर्भावना तक का पुरजोर और सक्रीय समर्थन भी शामिल है।
  4. यदि कोई मुंहभर अपशब्दों के मालिक है, उसकी भाषा में पर्याप्त हिंसा है तो वह अपनी इस दौलत को धर्म पर, धार्मिक लोगों पर, धार्मिक प्रतीकों पर खर्च कर विशुद्ध धर्मनिरपेक्ष कहला सकता है।
  5. एक तरफ परंपरागत ज्ञान का व्यवहार करने वाला कोई व्यक्ति धर्मनिरपेक्ष नहीं कहला सकता तो दूसरी और किसी भी प्रगतिशील विचार से अछूता व्यक्ति धर्म के प्रति अपने बैर के कारण ही प्रमाणित धर्मनिरपेक्ष बन सकता है।
  6. किसी भी प्रकार की मूर्खता, दुर्भावना या अपराध यदि किसी प्रकार से धर्म के विरुद्ध ठहरता है तो उसका पुरजोर समर्थन भी धर्मनिरपेक्षता का अनिवार्य लक्षण बनता जा रहा है।
इस प्रकार भारत के संदर्भ में कोई भी व्यक्ति उक्त प्रतीकों या किसी एक प्रतीक को भी छूकर वह धर्मनिरपेक्ष होने का स्वांग बहुत कुशलता से भर सकता है, सेक्यूलर समाज में अपना अभिनन्दन सुनिश्चित कर सकता है। संविधान की भावना के विपरीत उसका आधा-अधूरा कुपाठ ग्रहण भारतीय सेक्यूलर ऐसा करते हुए 50 प्रतिशत मौकों पर सही हो सकता है तब शायद वह संविधान की भावना के अनुरूप धर्मनिरपेक्ष  आचरण कर रहा हो लेकिन 50 प्रतिशत मौकों पर वह अनिवार्य रूप से गलत ही होगा तब वह गैरधर्मनिरपेक्ष आचरण कर रहा होगा और संविधान की धर्मनिरपेक्षता की भावना का खून कर रहा होगा।

यह हो सकता है कि साम्प्रदायिक कट्टरवाद की प्रतिक्रिया में ही भारत के सेक्यूलर वर्ग स्वरूप ऐसा बन गया हो, साम्प्रदायिक कट्टरवाद के विस्फोटों ने देश की सेक्लूयर जमात की दृष्टि ही इतनी क्षीण करदी हो, उसकी आँखों में साम्प्रदायिकता की कौंध इस कदर बस गयी हो कि अब उसे खुद का चेहरा उन आँखों से दिखना ही संभव न रहा हो। जो भी हो, लेकिन आज जहाँ एक तरफ ऐसा लगता है कि साम्प्रदायिकता पर लगाम किसी दमनकारी कार्यवाही से ही संभव है, जिसे प्रेम की भाषा समझ नहीं आती उसकी क्रूरताओं का जवाब सनकी सेक्यूलरिज्म की असभ्य भाषा में ही संभव है वहीं दूसरी ओर ऐसा भी लगता है कि तथाकथित प्रगतिशील समाज विरोधी छिछोरे और संकीर्ण सेक्यूलरिज्म को उचित सीख कट्टरवादी संगठन ही भली प्रकार दे सकते हैं।


ऐसा नहीं है कि नास्तिकता, धर्म की आलोचना या निंदा, अल्पसंख्यक धर्म का समर्थन, बहुसंख्यक समुदाय के धर्म की भर्तस्ना, प्रगतिशीलता और धर्म का विरोध(जड़ रीति-रिवाजों का) धर्मनिरपेक्षता का लक्षण नहीं है। लेकिन ये सब लक्षण धर्मनिरपेक्षता की अनिवार्य शर्त भी नहीं हैं। धर्म-निरपेक्षता को कई बार या बहुधा ऐसा करना होगा लेकिन हमेशा ही ऐसा करना होगा और केवल यही करना होगा, यह जरूरी नहीं है।  इसके विपरीत कई बार धर्मनिरपेक्षता को धार्मिकता का, बहुसंख्यक धर्म का पक्ष भी लेना होगा, अल्पसंख्यक समुदाय का विरोध भी करना होगा, धार्मिक व्यक्ति को सेक्यूलर स्वीकार करना होगा। धार्मिक नैतिकता एवं मानवता की प्रशंसा भी करनी होगी। समृद्धि, विकास और मानवाता को परंपरागत  विचारों में भी स्वीकार करना होगा। प्रगतिशीलता की जड़ता, हिंसा, राजनीति और समाज विरोधी कूपमंडूक विचारों का विरोध भी करना होगा। मेरे विचार में भारतीय धर्मनिरपेक्षता का कोई एक अनिवार्य गुण है तो वह उदारता ही होगा। कोई भी वह भाषा जो कटु है, हिंसक है, चरित्रहनन करने वाली और प्रतिक्रियावादी है भारतीय संविधान सम्मत धर्मनिरपेक्षता की भाषा नहीं हो सकती है।

5 comments:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

देश की सत्ता प्रो-इस्लामिक हो चुकी है और यह उसका चरित्र भी बन चुका है. अगर यह अवधारणा इतनी ही अच्छी होती तो विश्व के और देश भी अपना चुके होते जो कि नहीं हुआ. यूरोपियन और अमरीकी देशों में राज्य का धर्म होते हुये भी हमसे कहीं अधिक धर्मनिरपेक्ष हैं. निरपेक्ष का अर्थ था समान दूरी या किसी भी पक्ष के साथ नहीं लेकिन हुआ बिल्कुल उल्टा.

प्रीतीश बारहठ said...

@Indian Citizan,

Sir,
जातिगत, कबीलाई और खानदानी टकराव उन्हीं गाँवों में, जातियों, कबीलों और खानदानों में देखा जाता है जहाँ दोनों पक्षों की ताकत लगभग बराबर होती है। जहाँ एक पक्ष अत्यन्त बलशाली और दूसरा अत्यन्त कमजोर होता है वहाँ कोई टकराव नहीं होता। यहाँ समीक्ष्य विषय धर्मनिरपेक्षता का भारतीय चरित्र है।

सादर

Rangnath Singh said...

आप मेरा स्टैण्ड जानते हैं। इससे ज्यादा क्या कहुं !!

Admin said...

धर्मनिरपेक्षता के शाब्दिक अर्थ मत खोजिये... सबसे प्यार करिये..

Gyan Darpan said...

अपने देश में वोट की राजनीती ने धर्मनिरपेक्षता का स्वरुप ही विकृत कर दिया |