महिला आरक्षण बिल के दो महत्त्वपूर्ण प्रावधान हैं एक तो यह कि महिलाओं को राज्य और केन्द्र विधान मण्डलों 33 प्रतिशत आरक्षण प्राप्त होगा। दूसरा यह कि महिलाओं हेतु ये 33 प्रतिशत निर्वाचक मण्डल बारी-बारी से पृथक-पृथक होंगे। अर्थात वर्तमान के प्रावधान के अनुसार 15 वर्ष की कुल अवधि में प्रत्येक निर्वाचक मण्डल को केवल एक बार महिला के लिये आरक्षित किया जायेगा। 15 वर्ष बाद क्या होगा ? कहना मुश्किल है। भारतीय राजनीति में महिला वर्ग का पृथक से कोई वोट बैंक नहीं है। भारतीय महिला का 95 प्रतिशत वोट अपने परिवार, जाति, समाज, धर्म, क्षेत्र या पार्टी के अनुसार ही होता है। 1 प्रतिशत से कम महिलायें महिला मुद्दों के प्रति जागरुक हैं तथा उनके अनुसार ही वोट करती हैं। भारतीय समाज में परिवार, जाति, समाज, धर्म, क्षेत्र या पार्टी के संगठानात्मक ठांचे से बाहर महिला या पुरुष जैसा कोई स्वतंत्र वर्ग आज के समय में राजनीतिक रूप से अस्तित्व में नहीं है। अपनी दोनों आँखे फाडकर भी आज हम कोई ऐसा स्वप्न नहीं देख सकते हैं जिसमें महिलायें एक वर्ग के रूप में मतदान के लिये घर से निकल रही हों, उनके अपने पुत्र, पिता, पति या भाई से राजनीतिक मतभेद इस स्तर के हों कि वे उनके खिलाफ या उनसे पृथक वोट कर रही हों। यही वह तथ्य है जो महिला बिल के झण्डाबरदारों को आज आत्ममुग्ध किये जा रहा है, वे अपने राजनीतिक भविष्य को पूर्ण सुरक्षित मानकर (उसे औरत की झाँई से भी अछूता समझ) उल्लास और उत्सव में खोये हैं। आज यदि इन्हें कोई चिंता सताये जा रही है तो वह इतनी ही है कि अपनी पार्टी के अन्तिम लाइन के नेताओं की बगावत के कारण कहीं पार्टी बिल का श्रेय लेने से वंचित न रह जाये, पार्टी की नीयत पर कोई दाग न लग जाये।
बिल की कुटिलताः उक्त प्रावधान के अनुसार अपने क्षेत्र का स्थापित नेता 15 वर्ष में 10 वर्ष अपने और 5 वर्ष अपने परिवार की महिला नेत्री जो उसकी माँ, पत्नी, पुत्री, पुत्र वधु आदि हो सकती है के लिये सुरक्षित मान रहा है। क्यूँकि वह सीट एक बार के लिये केवल महिला के लिये आरक्षित होगी, उसमें महिला उम्मीदवार के लिये जाति आधारित कोटा नहीं होगा। पार्टी टिकिट नेताजी के परिवार की महिला को देगी क्यूँकि जीतने की अधिकतम संभावना के आगे सारे आदर्श खूँटी पर टंगे होंगे। नेताजी का वोट बैंक उनके परिवार के काम आयेगा, जो आगामी चुनाव में उन्हें ज्यूँ का त्यूँ सुरक्षित वापस मिल जायेगा। जनता समझेगी कि चाहे MLA, MP नेताजी की सम्बन्धी हो असली नेतागिरी तो नेताजी के हाथ में ही होगी। नेताजी की चमचागिरी से ही नेतीजी की चमचीगिरी मानली जायेगी। महिला रबर स्टाम्प और पावर सारे नेताजी के पास सुरक्षित। इसलिये किसी भी स्थापित नेता को न दूसरा चुनाव क्षेत्र ढूँढना पडेगा, न उसके भविष्य पर कोई खतरा होगा। लेकिन इसी बिल में यदि दलित जातियों के कोटे का प्रावधान हो तो समझो नेताजी की नींद आज ही उड़ जायेगी। मानलो नेताजी सवर्ण हैं और महिला आरक्षण की सीट की लाटरी आ गई एस.टी. महिला के नाम तो क्या होगा ? यह सही है कि पार्टी टिकट तो उसी एस.टी. महिला को देगी जिसके पक्ष में नेताजी होंगे। लेकिन नेताजी की इतनी परवाह भी नहीं की जायेगी। क्यूँकि एस.टी. वर्ग एकजुट हो जाये तो नेताजी की मजबूरी होगी कि किसी भी एस.टी. महिला के पक्ष लेना ही पडेगा वर्ना अधिक अकड़ या विरोध अगले चुनाव में भी दुःख देगा। फिर यह भी मान लिया कि चुनाव तक तो एस.टी. महिला नेताजी की ही वफादार रहे, आगे भी काम –काज के लिये शायद ऐसा करे लेकिन वह अपनी जमीन नहीं बनायेगी ऐसा तो संभव नहीं है। राजनीति में आकर क्या वह महिला उम्मीदवार महत्वाकांक्षी नहीं होगी ? ठीक है, महिला के आरक्षण तो एक चुनाव में ही होगा आगामी चुनाव में उसे वह आरक्षण नहीं मिलेगा, लेकिन किसी महिला के सामान्य सीट पर चुनाव लड़ने में तो कोई पाबंदी नहीं है आज भी। उक्त एस.टी. महिला ने अपने पांच वर्ष के कार्यकाल में अपना मजबूत जनाधार विकसित कर लिया तो तथाकथित नेताजी तो गये इलाके से हमेशा-हमेशा के लिये, क्यूँ कि अगले चुनाव में महिला के लिये आरक्षण हो न हो, पार्टी टिकिट दे न दे, वह महिला अपने जनाधार के आधार पर भी तो चुनकर आ सकती है। बस यही कारण है कि राष्ट्रीय पार्टियाँ और तथाकथित महान् नेता महिलाओं को एक ही वर्ग रखना चाहते हैं उन्हें वर्गों में नही बांटना चाहते। क्यूँकि महिला के नाम अपनी पारिवारिक महिला को रेवडी बांट दें महिला नाम की खानापूर्ति हो जाये। हल्दी लगे न फिटकरी और रंग भी चौखो!
इसी प्रावधान की दूसरी धार भी स्थापित नेताओं के लिये ही है और महिला के लिये बेहद खतरनाक़। मान लीजिये एक महिला आरक्षण के तहत पांच वर्ष के लिये MP या MLA चुनी जाती है। इस चुनाव में उसे आरक्षण का, इलाके के स्थापित नेता का और पार्टी का सहयोग मिलता है। राजनीति में कभी कुछ भी स्पष्ट नहीं होता, आपको कभी नहीं पता चलेगा कि नेता कि हार में और जीत में किस फैक्टर ने कितना काम किया। आप लगभग अनुमान लगा सकते हैं लेकिन संशय से पूर्ण मुक्त नहीं हो सकते। अच्छा काम करने के बावजूद उसी सीट से सामान्य उम्मीदवार के रूप में उक्त महिला को चुनाव लड़ते हुए हमेशा हार का डर सतायेगा। क्यूँकि जो नेता पिछले चुनाव में साथ था वह विरोध में चला गया है, पार्टी का साथ नहीं मिल रहा है, सामान्य उम्मीदवार के रूप में पुरुष उम्मीदवार से मुकाबला अधिक कठिन है। ऐसे में वह अपनी जीत के प्रति केवल अपने पिछले कार्यकाल में अच्छे कार्य के बूते ही इतना आत्मविश्वास पैदा नहीं कर सकती । बाहरी दबावों के साथ उसे हार डर से भी मैदान छोडने की इच्छा बार-बार होगी। दूसरा वह सुरक्षित सीट की आस में महिला के लिये आरक्षित किसी दूसरे चुनाव क्षेत्र से उम्मीदवार होती है तो वहाँ उसे अपने पिछले कार्यकाल को कोई लाभ नही मिलेगा। इस प्रकार महिला एक और मनोवैज्ञानिक लड़ाई में परुषों से हार जायेगी।
यही एक प्रावधान जनता के लिये भी घातक होगा। महिला के लिये आरक्षित सीट से जो महिला चुनाव जीत कर आती है और वह स्पष्ट है कि उसे इस क्षेत्र से आगामी चुनाव नहीं लड़ना है तो संभवतः क्षेत्र के विकास पर ध्यान न देकर पाँच साल सुख-सुविधा भोगने पर ही ध्यान देगी। यह स्थिति प्रत्येक चुनाव क्षेत्र में न्यूनतम दो बार आयेगी, या तीन बार भी आ सकती है। पुरुष उम्मीदवार की कार्यकुशलता भी इससे प्रभावित होगी और हो सकता है व लापरवाह भी इसी आशंका में हो जाये कि शायद अगली बार उसकी सीट महिला के लिये आरक्षित हो जाये। एक बार उसकी यह आशंका गलत साबित हो जायेगी तो आगामी चुनाव के लिये तो उसे यह निश्चय हो ही जायेगा कि अब उसकी सीट महिला के लिये आरक्षित होने वाली है।
फिर भी क्यूँ संसद में महिला नेत्रियाँ इस बिल को लेकर खुश हैं और इसे अपनी जीत बता रही हैं। ऐसा इसलिये कि ये सभी महिलायें स्थापित हैं, इन्होंने अपनी जमीन बिना महिला आरक्षण के ही बना ली है। बिल का पूरा श्रेय तो इन्हें मिल रहा है लेकिन इनके लिये खतरा कोई नहीं है, बल्की पुरुष राजनेता भी इनके कृतज्ञ हो रहे हैं कि ये उनको सुविधापूर्वक महिला आरक्षण की गली से निकलने दे रही हैं।
यादव बंधु इसका विरोध कर रहे हैं। उनकी माँग उचित है। कहा तो यह भी जाता है कि वे इस आरक्षण को लागू नहीं होने देना चाहते। उनकी स्थिति क्या है वे खुद बेहतर जानते हैं। लेकिन उन्हें कोटे में कोटे के साथ परिवर्तनशील निर्वाचन क्षेत्रों के स्थान पर निश्चित निर्वाचन क्षेत्रों के प्रावधान की भी माँग करनी चाहिये। उन्हें अपना आन्दोलन जनता में ले जाना चाहिये। क्यूँकि महिला कोई वर्ग नहीं है और न उसके बनने की संभावना है, लेकिन दलित वर्ग को बिल की हकीकत समझाकर उसे बिल के प्रावधानों का विरोध कर संशोधन की माँग कर रही पार्टियाँ अपने साथ जोड़ सकती हैं। यह आज नहीं तो कल अवश्य होने ही वाला है।
बावजूद इसके हम यह चाहेंगे कि यदि राष्ट्रीय पार्टियों के छल उनकी हठधर्मिता के चलते यदि बिल में संशोधन संभव नहीं हो पा रहा है तो भी उसे संसद में पारित तो करवाना ही चाहिये। क्यूँकि वह दिन भी अवश्य आयेगा जब किसी भी सरकार को महिला आरक्षण में दलितों के लिये पृथक से कोटा निर्धारित करना ही होगा और महिलाओं के लिये आरक्षित सीटें निश्चित होंगी। तब संसद में महिला प्रतिनिधि 33 प्रतिशत नहीं होकर 50 प्रतिशत होंगी। वर्तमान बिल तो उन्हें कुल 33 प्रतिशत तक सीमित रखने और स्थापित महिला जन प्रतिनिधियों को भी उसी में एडजैस्ट कर लेने की बदनीयती से बनाया गया है।
Tuesday, March 16, 2010
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