( आज पुनः पढ़िये "चिडिया" कुछ ग़ज़लों के साथ यह कविता अपने ब्लॉग पर मेरी पहली पोस्ट थी। आज पुनः लगा रहा हूँ क्यूँकि "बना रहे बनारस " ब्लाग से फुदक कर गौरैया ने फिर मेरे दिमाग में घोंसला बना लिया है)
चिड़िया
उठा लाई तिनका, चिड़िया
घर बनाएगी वह मेरे घर में
कोई भी नहीं देख पाता है अपने घर में दूसरा घर
मैं भी उठाकर फैंक दूँगा चिड़िया के सारे तिनके
चिड़िया चहकेगी! फिर उठा लाएगी ढेर-सारे तिनके
बनाकर ही मानेगी वह मेरे घर में घर
और मैं उठा-उठाकर फैंकता रहूँगा घरों पर घर
फिर चिड़िया वहाँ बनाएगी घर
जहाँ मेरे ही घर में नहीं पहुँचती मेरी नज़र
लेकिन मैं देख लूँगा एक दिन अपने घर में दूसरा घर
आखिर मेरा अपना है घर
उठाकर ले जाऊँगा घोंसला अंड़ों समेत
फैंकने पर फूट सकते हैं अंड़े
मैं ये पाप नहीं करूँगा
दूर रख आऊँगा घोंसला अंड़ों समेत
मैं नहीं समझूँगा चिड़िया की भाषा में-
कि घरों को भी होती है एक अदद छत की ज़रूरत
वे नहीं छोड़े जा सकते खुले आसमान में
फिर पनपते ही हैं सब घरों में घर
सबके घर तोड़ने वाले भी होते हैं;
अंड़े फूट भी जाते हैं और किसी को भी नहीं लगता उनका पाप
ऐसी बहुत-सी बातें
कि मेरा घर भी है किसी के घर में घर
कि इतने घरों में भी क्यूं नहीं मिलता घर में घर
मैं कभी नहीं समझूँगा चिड़िया की भाषा में
चिड़िया चाहे कितना ही चहके।।।
Friday, March 26, 2010
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7 comments:
कि घरों को भी होती है एक अदद छत की ज़रूरत
हम भला चिड़ियों की भाषा कब समझे हैं
सुन्दर भाव की रचना
सच तो यही है कि हमने कभी नोटिस नहीं लिया गौरैया के खत्म होते जाने का। एक कथाकार ने और एक कवि ने अपनी रचनाओ के माध्यम से इस पर ध्यान खींचा। आपकी संवदेनशीलता को नमन।
बड़ा अच्छा लगा. सौभाग्य से मेरे घर में भी गोरैय्ये ने एक घोंसला बनाना आरंभ कर दिया है. पानी की व्यवस्था तो पहले ही कर रखी थी.
sundar bhaav........."
amitraghat.blogspot.com
पढकर अच्छा लगा.....
................
बचपन में तुम मेरे घर आती थी...
लेकिन अब ..घर..”घर” कहाँ रहा?
अब तो मकान हो गया है..
तुम आँगन में फुदकती थी...
अब आँगन ही नहीं है..
तुम चावल के दाने बीनती थी..
अब क्या पिज्जा, बर्गर खा पाओगी?...
....पूरी कविता ....पढ़ें...
http://laddoospeaks.blogspot.com/2010/03/blog-post_20.html
A reflection of genuine sentiments ! Itz good to c ur very first poem on this blog again !
बनी रहे गौरेया....
अच्छी रचना!
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