Monday, May 25, 2009

कृपया जनता को ऐसी गाली मत दीजिये!

तो हो गया मतदाता का बुद्धिमत्तापूर्ण फैसला! यदि परम सम्माननीय टी.वी. चैनलों और अखबारों ने आप को सांस लेने की फुरसत दे दी हो तो अब हम आपका दम फुलाते हैं।

आपके कुछेक मित्र ऐसे होंगे जो आपको राह चलते रोक कर पूछते होंगे, अरे हाँ फलां मामले में क्या हुआ? आप धैर्य के साथ, सम्मान के साथ, मुलाहिजे के लिए संक्षेप में निवेदन करते होंगे – आदरणीय उस मामले में तो कुछ नहीं बस .ऐसा हो गया। सुनते ही परमआदरणीय धरती से 5 फुट उपर उछलते हौंगे, हाथ नचाकर, नैन मटकाकर, आवाज में आरोह-अवरोह के साथ घोषणा करते होंगे – यही तो होना था, हमने कहा न था? और बताने लगते होंगे ऐसा इसलिये हुआ, उसलिये हुआ, और सुनो यह लोग कतई नादान हैं कुछ नहीं जानते हमारी नहीं सुनते, जबकि ऐसा इसलिये हुआ, उसलिये हुआ, इधर से हुआ-उधर से हुआ। आप बार-बार पहलू बदलते हैं, घड़ी देखते हैं लेकिन आदरणीय आपको राह नहीं दे रहे हैं, हद तो यह है आपको मुस्कराना पड़ रहा है। आप मान रहे हैं कि आदरणीय सही कह रहे हैं ऐसा इसलिये – उसलिये ही हुआ है, लेकिन आदरणीय आप पर अभी भी शक कर रहे हैं कि आप उनकी बात से सहमत नहीं हैं। आप याद कर रहे हैं कि ऐसा होने से पहले जब – जब आदरणीय ने आपकी राह रोकी तब –तब ऐसा कुछ नहीं बताया था। बल्कि जितनी संभावनायें थी सब की ही घोषणा की थी. मसलन ऐसा हो सकता है, या वैसा हो सकता है। या ऐसा-वैसा कुछ भी हो सकता है, तैसा भी होने की संभवानायें बन रही हैं। कुछ न कुछ होगा जरूर टाइप की घोषणायें श्रीमान् हमेशा ही करते रहे हैं लेकिन ऐसा होने की तो कभी नहीं की। आदरणीय आपका रास्ता तभी छोडेंगे जब कि आप के स्थान पर किसी और को बीच राह घेर नहीं लेते। तो आपके यही मित्र हैं टीवी चैनल और अखबार।

घोषणा हो गई है कि यह निर्णय जनता का है, सोच-समझकर किया गया है, एक राय से किया गया है, उचित किया गया है, इतनी चालाकी से किया गया है कि किसी को खबर भी नहीं लगने दी गई। इससे अच्छा निर्णय कोई हो नहीं सकता था। और जनता हर मुद्दे को हर विशेषज्ञ से ज्यादा समझती है। राजनेता तो भोंदू हैं, मीडिया ही जागरुक है।

मित्रो निर्णय कुछ भी रहा होता। परिणाम कैसा भी आया होता विश्लेषण यही होता। पिछले कई चुनावों का विश्लेषण उठाकर पढ़ लीजिये। तब जब भाजपा आई थी, जब त्रिशंकु सरकारें बनी थी, जब कांग्रेस धूल चाट रही थी, जब मध्यावधि चुनाव हो रहे थे। राज्य विधानसभाओं के चुनावों के विश्लेषण देख लीजिये। जब कांग्रेस जीती तो जीतना क्यूं जरूरी था, भाजपा जीती तो क्यूं जरूरी था, कांग्रेस का हारना क्यूं जरूरी था, वामपंथियों का सरकार पर अंकुश क्यूं जरूरी था, त्रिशंकु लोकसभा क्यूं हितकर थी। वामपंथियों का घर बैठना क्यूं जरूरी था। आपको सब के कारण गिनाये जायेंगे। क्यूंकि जनता तो अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र सब शास्त्रों की विशेषज्ञ है, और जो भी निर्णय लेती विकास के लिए ही लेती है, पिछले चुनवों में(प्रत्येक पिछले चुनाव में) जरूर वह थोडी बहुत भावना में बह गई थी, लेकिन अब पूरी काइयाँ हो गई है। है कि नहीं। लोकतंत्र में जनता के निर्णय पर संदेह करना तो पाप है। गाँठ बांध लीजिये। गाँठ बांध लीजिये कि सौ में इक्यावन आदमी यदि किसी कुये में गिरने का फैसला करते हैं तो पूरे सौ के सौ को कुये में कूद जाना है, चूं-चपड़ की तो राजद्रोह में फांसी पर लटका दिया जाना है, आखिर इक्यावन आदमियों का फैसला अविवेकपूर्ण कैसे हो सकता है!

ये अखबार वाले अपना ही लिखा पढ़ते नहीं है, यदि ये अपने पिछले दिनों के लिखे हुए को पढ़लें, चैनल वाले अपनी रिपोर्टों को फिर से देख लें और अपने किये गये विश्लेषण से मिलान करें तो तस्वीर साफ हो जायेगी। जहाँ आधे मतदाता वोट डालने नहीं जाते हों उनका निर्णय क्या कहता है? क्या उनके लिये सभी राजनेता विकास पुरुष है? क्या वे जैसा विकल्प चाहते हैं वैसा विकल्प उनको उपलब्ध है? क्या वे देश की रीति-नीति से अछूते हैं? वे वोट नहीं डालते इसलिये गैरजिम्मेदार नागरिक हैं, क्या इतना साधारण निष्कर्ष उचित है? 50% वोटिंग में से फर्जी वोटिंग कितनी होती है? कितने % मतदाता अनुचित दबाव – प्रलोभन में वोट देते हैं? और कितने % को वोट देने से रोका जाता है? चुनाव परिणाम घोषित होते ही क्यूँ बूथ कैप्चरिंग, फर्जीमतदान और चुनावी हिंसा की घटनायें भुला दी जाती हैं? क्या इस परिप्रेक्ष्य में आये हुए चुनाव परिणाम को जनता का फैसला कहना उचित है? वोटर वर्ग में कितने % नागरिक विकास दर, वृद्धिदर, सूचकांक आर्थिक नीतियों की परिभाषा भी जानते हैं जो हम उसे विकास के लिये दिया हुआ वोट मानते हैं? मसलन गाँव में सड़क बनी है, पानी आया है, बिजली आयी है, तो हम कहदें कि विकास को वोट मिला है लेकिन उसी गाँव में बेरोजगारी बढ़ी, किसान बर्वाद हुआ है, शिक्षा व्यवस्था जर्जर है, नरेगा में-राशन में प्रभावशाली वर्ग हावी है, वास्तविक बीपीएल बाहर है, भ्रष्टाचार बढ़ा है तो उस पर वोट नहीं हुआ है! निवेदन है कि मतदान कर्मियों के अनुभव जो छापे है वही पढ़लें फिर विश्लेषण करें। यह तो बानगी है वरन् कर्मचारियों कि राजनैतिक पक्षधरता के कारण सारे मामले सामने ही नहीं आ पाते हैं? जो जीता है वह देवता है और जो हारा है वह राक्षस इतना सरलीकरण मुझे स्वीकार नहीं है। इसे मतदाता का फैसला कहना मतदाता को गाली देने के बराबर है?

यूपीए को बहुमत मिल गया। जानकार बता रहे हैं कि पूर्ण बहुमत से 10 सीट कम भी मतदाता ने तौलकर कम की हैं जो जरूरी था। जैसे कि फर्जी वोटिंग 97 प्रतिशत की गणना कर की जाती है ताकि पुनर्मतदान की सिफारिश भी नहीं हो, ठीक उसी तरह की गणना कर पूर्ण बहुमत से 10-11 सीट कम यूपीए को। जनता भावना में नहीं बहेगी, वह विकास को वोट देगी। ऐसा चुनाव तो टास उछालकर या गोलियाँ निकाल कर भी करवाया जा सकता है। उसमें भी व्यापक सुरक्षा इंतजामों की जरूरत होगी नहीं तो बाहुबली टास को हवा में उछलकर पकड लेगा और धरती पर (देखभाल कर) रखेगा कि ये लो जी टैल आया है मैं जीत गया, गोलयाँ निकालने भी यह होगा - बच्चू सिंह कहेगा कि गोली मैं ही निकालूंगाँ क्योंकि मैं बच्चा हूँ, सब मुझे बच्चू कहते हैं। और सब गोलियों पर मेरा ही नाम होना चाहिए, बच्चे की भावना का सम्मान होना चाहिये। खर्चा भी बचेगा और परिणाम बिल्कुल बुद्धिमत्तापूर्ण आयेगा। गोलियाँ इस कारण से ऐसी-वैसी निकलेंगी, टॉस इस-उस कारण से हैड –टैल में परिणाम देगा। चुनावी ऐम्पायर को भी कम तकलीफ होगी।
परिणाम आ गया है-
तब क्या हम मानलें कि देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का है बहुसंख्यक गरीबों का कोई हक नहीं है? जनता 60 रु. किलो दाल खाकर खुश है और अगले पांच साल में 250रु. किलो दाल खाने को तैयार है रिक्शे वाला भी, मोची भी? किसान खुशी से आत्महत्या कर रहा है और करता रहेगा? बैंक कर्ज माफ से आत्महत्या रुक जानी है? क्या भारत में सरकारी बैंक के डर से आत्महत्या हो रही थी? मनमोहन सिंह पहलवान प्रधानमंत्री हैं मजबूत? विदेशों से काला धन वापस लाने की नहीं कर चोरी करवाने और हवाला को बढ़ावा देना अब तो कानूनन वैधानिक बना देना चाहिये, जनता की इच्छा के अनुसार। आतंकवादियों को फांसी देने की जरूरत नहीं है उन्हें तो भारत रत्न देना चाहिये। जनता का फैसला पक्ष में आगया है तो अब क्या ढीलढाल है? कसाब से अब क्या पूछताछ करनी है, जनता ने मान लिया है कि बंबई हमले के मामले में हमने पाकिस्तान को नाकों चने चबवा दिये हैं। अब आतंकवाद कहाँ? खत्म है सबकुछ.

कृपया जनता के लिये इस तरह की गाली स्वीकार मत कीजिये। उसके लिए विकल्प की मांग कीजिये। जीतने वाले वालों के आगेपीछे नाचना, यह तो भडुवागिरी है। मीडिया की आवाज सबसे सशक्त होती है, लेकिन दुर्भाग्य है इस देश का कि हमारे सूचना से स्रोत न ही निष्पक्ष हैं और न ही गंभीर। कहने को जनता को जितना बड़ा हक दे रखा है उसका प्रयोग करने को उतना कौशल भी उसे दीजिये। मीडिया को यही मांग निरन्तर करनी चाहिए, और ऐसे नाजुक मौकों पर उसे ज्यादा से ज्यादा उछालना चाहिए, जिससे सबका ध्यान इस और आये। अनाडी आदमी के हाथ में ए.के.47 देकर उछलिये-कूदिये मत कि आपने उसे योद्धा बना दिया है, यदि उसे चलाना नहीं आया तो वह खुद को भी गोली मार सकता है। भडुए फिर शोर मचायेंगे कि देखो उसने गोली भी चलाना सीख लिया है और इस शोर में उसकी मौत दब कर रह जायेगी।

आप इनदिनों के सम्पादकीय पृष्ठ ही नहीं मुख्य और अंतिम पृष्ठ पढिये। वहाँ यूपीए और मनमोहनसिंह जी के लिए एक से बढ़कर एक सीख है। कुछ इसी अंदाज में “पप्पू तेरे मैथस् में अच्छे नम्बर आये हैं, अब तू साइंस ले ले।” कई बार तो ये सम्पादकीय सीधे अमरीकी राष्ट्रपति को भी संबोधित होते हैं, क्या ये लोग इनको पढ़ते हैं, पाठक को संबोधित कोई सम्पादकीय आपको ढूँढ़ने से नहीं मिलेगा।

विनोद दुआ सुषमा स्वराज से पूछ रहे थे कि लालकृष्ण आडवाणी ने तो अपनी हाईटेक वेबसाइट भी लांच की थी फिर भी कैसे हार गये? मुझे लगा अब यह पूछेंगे सुषमा जी आपने भी तो नई साडी पहनी थी, जेटली ने नई शर्ट अभी सिलवाई थी फिर भी कैसे..? शुक्र है ये महानुभाव यूपीए की जीत को राहुलगाँधी के कुर्ते – पजामे की जीत नहीं बता रहे। लालकृष्ण आ़डवाणी ने प्रधानमंत्री को कमजोर कहा – कोई आवश्यकता नहीं थी ऐसा कहने की, मुद्दा बनाने की तो कतई नहीं। भारत का बच्चा-बच्चा जानता है मनमोहन की कमजोरी, उसमें गलत भी क्या है, क्या मनमोहन जी अपने बूते पर प्रधानमंत्री हैं? जिसके कारण प्रधानमंत्री है उसके सामने झुकेंगे नहीं तो क्या प्रधानमंत्री रह पायेंगे। मनमोहन जी को मजबूत बताने वाले से इतना फिर भी पूछना चाहिए कि क्या वे सोनिया को नाराज करने का जोखिम उठा सकेंगे? कमजोरी से यही आशय था। आडवाणी के ऊपर कोई सोनिया गाँधी नहीं है, मजबूती से भी इतना ही आशय था। बहुत खुशियाँ इस बात की नहीं हैं कि भाजपा को पटखनी मिली है खुशी इसकी सबसे ज्यादा जाहिर हो रही है कि वामपंथियों की औकात घटी है! ये विश्लेषणकर्ता यह नहीं कहेंगे कि कांग्रेस हमेशा दूसरों के कंधे पर चढ़ कर ही आगे बढ़ी है। एक कहानी है कि एक डाकू लंगडा होने का बहाना कर एक घुड़सवार से लिफ्ट लेता है, आगे चलकर घुडसवार को गिराकर वह घोडे को ले उड़ता है। देवगौड़ा, गुजराल, चंद्रशेखर के जमाने भी याद कीजिये कांग्रेस ने कैसे उनका इस्तेमाल किया वक्त आने पर कैसे समर्थन वापस लेकर सरकार गिराई, पूरे पांच साल वामपंथियों के कंधे पर बैठी रही और फिर बैठना चाहती थी, चिरौरी कर रही थी परिणाम आने से पहले तक, लेकिन अब जब परिणाम आ गया है तो वामपंथी गैर जरूरी हो गये हैं। कैसे सरकार बचाई थी वामदल के बाद, क्या वह पाक-साफ समर्थन था। मनमोहन स्वच्छ छवि के हैं तो छवि पर उन छवियों का असर नहीं पडना चाहिये जिनसे वे अपनी छवि की सुरक्षा करते हैं? वामदल भी जहाँ अडियल होना चाहिये वहाँ समझौता कर लेते हैं और जहाँ लचीला होना चाहिए वहाँ अड़ जाते हैं। विचारधारा को छोड़ दीजिये तो सारी गंदगी के बीच केवल वामपंथी नेता ही अपने आचरण और चरित्र से लोकतांत्रिक होने का प्रमाण देते हैं। भाजपा दूसरों को अपने माथे पर बिठाबिठाकर खुद कमजोर होती रही है। इतने अकर्मण्य सत्ता लौलुपों का जमावड़ा भाजपा में है कि वह कांग्रेस का विकल्प ही नहीं रही। हर कोई प्रधानमंत्री बनना चाहता है! वेटिंग इन पीएम भाजपा की पोस्ट नहीं है, यह मीडिया की दी हुई है। भाजपा की और से तो वह दल के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं। लेकिन राहुल भावी पीएम हैं, यह भी मीडिया की दी हुई पोस्ट हैं और दोनों का विश्लेषण कीजिये देश की मानसिकता कितनी पारदर्शी है। कांग्रेस में सुविधा यह कि वहाँ सर्वोच्च पद रिजर्व है, उसके विषय में किसी अन्य नेता का सोचना भी पाप है, अतः वहां यह लडाई हो ही नहीं सकती। बपौती जो है। राजीव की हत्या के बाद 5-10 वर्ष तक के श्मशानघाट के वैराग्य के बावजूद विरासत थाली में सजी हुई इंतजार करती है। प्रत्येक निर्णय के लिये एक अंतिम निर्णायक मौजूद है जिसके होते कोई विवाद की गुंजाइश नहीं है। भाजपा में ऐसी बपौती कोई नहीं है इसलिये झगड़ा है। सोनिया ने प्रधानमंत्री पद त्याग दिया, राहुल अभी मंत्री बनने को भी तैयार नहीं है, स्यापा हो रहा है। जरूरत क्या है जब पत्ता भी उनकी मर्जी के बिना नहीं खडग सकता! मनमोहन जी वाकई भोले हैं वे समझते हैं कि राहुल को मनायें और मंत्री बनायें कोई उनसे पूछे कि आपको प्रधानमंत्री किसने बना रखा है? यह नौटंकी किसको दिखाई जा रही है। कारण है। मीडिया रोज आपको यह ड्रामे दिखाये, आप भी ड्रामे में भावना में बहें विकल्पों की मांग न करें। विश्लेषण यह भी युवा राहुल के नजदीक हैं। गाँव का बेरोजगार, अभावग्रस्त, विकल्पहीन, अंधकारमय भविष्य वाला युवक उस राहुल से क्या जुडाव महसूस कर रहा है जिसे प्रधानमंत्री, और नहीं तो कांग्रस अध्यक्ष पद, जन्म के साथ ही सजा-सजाया मिलता है?
तो मान लीजिये जनता भावना प्रधान नहीं है, कमजोर नहीं है, विकल्पहीन नहीं है, विशेषज्ञ है, निष्णात है इसलिये वह ऐके 47 से हमेशा खुद पर ही गोली चलाती है क्यों कि अपनी दुश्मन खुद ही है।

Saturday, May 23, 2009

सूखे पत्ते

सूखे पत्ते

उसी वृक्ष के नीचे
जहाँ बासन्ती बयार में
हम किया करते थे मन-क्रीड़ा
गया था मैं अकेला पतझड़ के दिनों
और लिख आया था
सूखे पत्तों पर अपने मन की बात।

जब अबके बसन्त तुम वहाँ गयी
तुमने पढ़ली सूखे पत्तों पर मेरी आह
या तुम्हारे वहाँ जाने से पहले ही
हवा उड़ा ले गई मेरे दिल की बात?

काश! अबकी बार भी संभव हो पाता
हमारा वहाँ साथ-साथ जाना
मिलकर ढूँढ़ते हम उन पत्तों को
और पढ़ते सूखे पत्तों पर
अपने बिछोह के दिन

तुम्हें कभी याद आये मेरी
पेड़ो तले ढूँढ़ना सूखे पत्ते
और पढ़ना उन्हें।

Thursday, May 7, 2009

आतंकवाद - कांधार

चुनाव का आज चौथा चरण सम्पन्न हो रहा है। इस चुनाव में आतंकवाद भी एक मुद्दे के रूप में उभरा। बंबई हमले में कांग्रेस सरकार की सफलता-विफलता के साथ भाजपा सरकार द्वारा कंधार में छोड़े गये आतंकवादियों की विशेष चर्चा हुई है। आज अपनी डायरी पलटते हुए मुझे उस समय की अपनी लिखी हुई एक कविता मिल गई। सोचा क्यूं नहीं इसे पोस्ट कर दिया जाये! कविता से पहले कुछ विचार कुनमुना रहे हैं वह भी लिख देता हूँ। चुनाव में जो पढने-सुनने को मिला उसमें कुछ इस तरह की बातें हैं-
भाजपा कहती हैं कि कांग्रेस आतंकवाद पर कमजोर है, उसने पोटा हटा दिया, अफलज को फांसी नहीं दी जा रही है।
कांग्रेस कह रही है कि भाजपा के समय कई सारी आतंककारी घटनायें हुई हैं, संसद पर हमला हो गया, उसने अपहृत विमान को चंडीगढ़ में नहीं रोका बल्की तीन खूंखार आतंककारियों को जंवाई की तरह जसवंत सिंह छोड़ने गये। जबकि इंदिरा जी और राजीव जी आतंकवाद से लड़ते हुए शहीद हो गये। कांग्रेस ने आतंकवाद के सामने कभी घुटने नहीं टेके जबकि भाजपा ने टेके हैं, बंबई हमलों के बाद मजबूत प्रधानमंत्री के सामने पाकिस्तान को विवश होकर मानना पड़ा कि आतंककारी पाकिस्तानी थे। यह कांग्रेस की उपलब्धि है।
दोनों दलों का जोर-उपलब्धि कमोबेश यही है।
मैं कंधार वाली घटना को याद करता हूँ तो कुछ तथ्य इस तरह से हैं, आतंकवादियों ने विमान चण्डीगढ़ हवाई अड्डे पर उतार कर ईंधन मांगा, ईंधन के बहाने कमाण्डो कार्यवाही की तैयारी की गई लेकिन पट्टी पर जीप देखते ही आतंककारियों को शक हो गया, वे बिना पैट्राल लिये ही जहाज उड़ा ले गये ठेठ कंधार, बीच में एक यात्री की उन्होंने हत्या भी करदी। कंधार पर उन दिनों तालिबान का राज था वहाँ भारत सरकार को किसी तरह की सहायता की कल्पना करना भी व्यर्थ है। यही तालीबान जो आजकल पाकिस्तान में है – देख लीजिये। घटनाक्रम कई दिनों चला, अपहृत यात्री लगभ 160 थे, चैनलों पर उनके परिजन दिनभर रुदन करते देखे जाते थे, प्रधानमंत्री निवास तक चैनलों के वाहनों में वे जाकर प्रदर्शन करते थे और उसका लाइव प्रसारण होता था। सारे देश का माहौल गमगीन था, यात्रियों की जान में न केवल परिजनों की बल्कि सारे देश की सांसे अटकी हुई थीं। सर्वदलीय बैठकें हुई थीं, देश की जनता की भावना को देखते हुए कांग्रेस समेत कोई भी दल यात्रियों की जान को जोखिम में डालने की बात जबान पर न ला सका, बल्कि बहुत दिनों बाद तक भी न ला सका। सबने सरकार के निर्णय को समर्थन दिया। जबकि मुफ्ति मो. सईद की एक बेटी के बदले भी आतंकारी कांग्रेस के शासन में छोडे जा चुके हैं। अब पता नहीं क्यूं आडवाणी कहते हैं कि उन्हें जानकारी नहीं थी। आतंककारी छोडने के लिए जसवंत सिंह साथ गये, इसे यूँ भी देखा जा सकता है कि तालिबान की धरती पर जान जोखिम में डालकर जसवंत सिंह देश के 160 नागरिकों को लेने पहुँचे। उस समय तो यही कहा गया था आपात स्थिति में कोई निर्णय लेना पड सकता है, अतः विदेशमंत्री साथ गये हैं। इस घटना के बाद, सबक लेते हुए तत्कालीन सरकार नें कानून बनाया था की किसी भी अपहृत विमान को देश की सीमा के बाहर नहीं ले जाने दिया जायेगा और उसे मार गिराया जायेगा, भावनात्मक समस्या पैदा होने से पहले ही। अब कांग्रेस कहती है कि वह आतंककारियों को नहीं छोड़ती इसका मतलब निकलता है कि उस स्थिति में जब आप देश के 160 नागरिकों को बचा सकते थे, उन्हें मरवा देते।क्या राहुल गांधी अपने विचार उस विधवा से साझा करना चाहेंगे, जो उस विमान में ही विधवा हुई थी। फर्ज कीजिये मेरा कोई प्रियजन उस विमान में रहा हो तो आज यह बयान सुनकर मुझे कैसा लग रहा होगा! पिछेले दिनों देश में ताबड़तौड़ बम फूटे हैं, संख्या की दृष्टि से भी और मरने वालों की दृष्टि से भी यह केन्द्र सरकार के लिए अपनी पीठ थपथपाने वाली बात कैसे हो सकती है? फिर भी पूरा माहौल ऐसा कह रहा है जैसे केवल मुंबई हमला ही एक घटना घटी है, और जिसमें भी सरकार ने पाकिस्तान को पता नहीं कितना विवश कर दिया है जो देश की जीत है? इस घटना का मुकाबला भी सरकार ने कैसे किया जरा गौर कीजिये- अभी तक यह भी स्पष्ट नहीं है कि मरने वालों में कितने सुरक्षा बलों की गोली से और कितने वास्तव में आतंकवादियों के गोली से मरे हैं? घटना के कई दिनों बाद तक जहाँ से सुरक्षाकर्मी सैकडों बार निकले होंगे वहाँ बम बरामद होते रहे, गनीमत है फटे नहीं। एक मात्र आतंकवादी पकड़ा गया वो भी किसकी बहादुरी से और कैसे, बडे-बडे तीसमार खाँ वैसे ही खां म खां मारे गये। पाकिस्तान सरकार ने मान भी लिया कि कसाब उनका नागरिक हो सकता है, आतंकवादी उनकी धरती से आये हो सकते हैं, तब भारत को क्या मिल गया। क्या पाकिस्तान ने मान लिया कि वहाँ की सरकार या आई.एस.आई. इसमें लिप्त रही है, या उसके यहाँ बाकायदा ट्रेनिंग कैम्प चलते हैं और उनमें से एक भी बंद होने जा रहा है। या उसने एक-आध आतंककारी को भारत को सौंप दिया है। वस्तुतः दोनों सरकारों का काम करने का ढ़ग एक जैसा ही है। जैसे आतंकवाद से लड़ते हुए इंदिरा जी और राजीव जी मारे गये ऐसा नहीं होना चाहिए लेकिन ऐसे शहीद होने में कुछ भी करना नहीं पड़ता है, सिवाय आतंकवाद को पनपाने, पनपने देने के। बल्कि संसद पर हमला और उक्त नेताओं के मारे जाने की घटना तो आतंकवाद के सामने एक राष्ट्र की घोरतम विफलता के सबूत हैं। खैर कविता पढियेगा-----
कंधार की उस रात के संदर्भ

श्मशान हुए अंधेरों के बीच
जब रो रहे थे कुत्ते
तब उनके रोने और भयावह आशंकाओं के बीच
अपने सिरों को धड़ों से उतारकर हाथों में लिये खड़े कुछ मनुष्य
रट लगाये हुए थे
हिंस्र पशुओं की इच्छाओं को मुक्त किये जाने की
वे भूल रहे थे शताब्दियों के मिलने के क्षण
कि जिन रोशनियों से धुल जाने वाली थी कालिख
उसे बेचा जाना था काले रंग के डिब्बों में
और खरीददारों को कैद कर लिया गया
कंधार के हवाई अड्डे पर
जहाज में यदि चलती गोली, फूटते बम
तो बाजार होता था चौपट
और यदि हिंस्र पशुओं को किया जाता मुक्त
तो वे निगल जाते समूची रोशनी

एक महिला बहुत बुरा बना लेती थी अपना मुंह
करते हुए देश की रक्षा-नीति की चर्चा
चलो यूँ ही मान लेते हैं कि अपने चैनल
बेचते नहीं हैं खूनी घटनाओं को
वो तो घटना का सजीव, सीधा और विश्लेषित चित्र
प्रसारित करते हैं देश की जनता के समक्ष
वो तो महज वर्ष भर काम करने वालों के लिए विश्राम का बहाना
और वर्ष भर निठल्ले बैठे रहने वालों के लिए काम का अवसर देते हैं
महिला जाते हुए देती है धन्यवाद कि उसका चेहरा दिखाया गया

अंततः एक राष्ट्र
एक लोकतंत्र
संसार की एक सबसे अच्छी सेना
विधवाओं की बद्दुआ, युवाओं का आक्रोश
सत्ताधारियों के समूचे प्रयास, विपक्षियों के व्यंग्य
मित्रों का सहारा और दबाव
सबके सब परास्त हो गये एक बाज़ीगर और उसके जमूरों के समक्ष

कंधार की उस रात के संदर्भ में थे
कई समझौते और कई तख्तापलट
कारगिल और सियाचीन, गिलगित और लद्दाख
पुरुष प्रधानमंत्रियों से लेकर महिला प्रधानमंत्रियों तक
आजादी के अगुआओं से लेकर गरीबी के पिछुआओं तक
विश्वासघात भी थे, शांति के प्रयास भी
उस रात के, उस अंधेरे में, उस अड्डे पर
मौजूद थे परमाणु परीक्षण
बेशर्मी और बलिदानी धैर्य सब साथ-साथ थे
उसी समय, उसी जहाज में व्याप्त था भय, पसरा था मौन
कायम थी शांति।

सत्य से उठने लगी थी दुर्गंध
कंधार की उस रात के संदर्भ में था
सड़ांध मारता सत्य।