Thursday, April 28, 2011

अपने दरमियाँ है एक आग का दरिया

‘ख़ुदा’ है, यह कौन बताता है मुझे
ख़ुद अपना ही डर तो सताता है मुझे

ये अफ़सर है सियासत का नुमाइंदा
अर्ज़ी लेकर, कल फिर बुलाता है मुझे

अपने दरमियाँ है एक आग का दरिया
तू कहाँ और क़रीब बुलाता है मुझे

दास्ताने-ग़म जैसे दिखाने की चीज़ है
अपने ही बिस्तर में बुलाता है मुझे

मैं वहीं हूँ जहाँ मेरा साया है
साथ रखता है, साथ सुलाता है मुझे

खिलौना हाथ में देकर छीन लेता है
हँसाता है, फिर ख़ूब रुलाता है मुझे

दिले आशिक़ से उसका ठिकाना पूछा
बाम का चाँद इशारे से दिखाता है मुझे

Friday, February 11, 2011

तीन ग़ज़लें

1
ज़ख़्म ही ज़ख़्म हैं, अश्क ही अश्क हैं यहाँ हर तरफ़
बच के जायें किधर, चश्म ही चश्म हैं यहाँ हर तरफ़

मौत ही मौत है ज़िंदगी में यहाँ, आँख में ख़ौफ़, दिल में शुबहा है यहाँ
किस-किस से बचें, रश्क ही रश्क है यहाँ हर तरफ़

तूफ़ान हैं हर ज़हन में बहुत, किसको समझें सभी पेचीदा बहुत
किस-किस को कहें, नुक़्स ही नुक़्स हैं यहाँ हर तरफ़

हुस्न का, इश्क़ का, दौलत का गुमाँ, बहका हुआ हर मंज़र खड़ा
हाथ से लब तलक, चश्क ही चश्क हैं यहाँ हर तरफ़

किसको मानें वली, किसको रहबर कहें, कैसे चलें अलग राह पर
जिस तरफ़ भी चलें, नक़्श ही नक़्श हैं यहाँ हर तरफ़

2
कम कैसे ज़िदगी का ग़म करदूँ
कौनसा ख़र्चा है जिसको कम करदूँ

कोई दम आ जाये हाथ में सूरज
नाक में रौशनी के दम करदूँ

मैं हू कि मेरा वहम हूँ मैं
नज़ात पाऊँ जो मैं को हम करदूँ

इतनी हक़ीक़त है मेरी हस्ती कि मैं
तमाम आलम को इक वहम करदूँ

ख़फ़ा बेइख़्तियार हूँ ख़ुद से
जी में आता तो है, रहम करदूँ

3
हरेक शख़्स को जानी ग़म है
उसके हिस्से की कहानी कम है

कितने दरिया अश्कों से भरे मैंने
शहर ने मुझसे कहा पानी कम है

नीयत बिगड़ी है तो यूँ कहदे
क्यूँ कहता है, जवानी कम है

अलग मेरे ख़ून का मुद्दा, ज़माने से
क्या मेरे ख़ून में रवानी कम है

मुझे लौटा दिया बादे बहस, मुझमें
दुःख ज़ियादा है, कहानी कम है

Thursday, February 3, 2011

ग़ज़ल

कैसे समझाऊँ कि क्या होता है
ज़िक्र करते ही वो तो रोता है

उसे चराग़ों का इल्म कैसे हो
हाथ आँखों पे रखके सोता है

ये नज़ारे हसीन हैं लेकिन
जाने क्यूँ मुझको वहम होता है

आँख कुल जाएगी जब ये टूटेगा
तेरे सपने में क्या-क्या होता है

लौट आयेगी हवाओं में नमी
आँसुओं को चमन में बोता है

जो भी इस दौर की दुनिया से
बात करता है, बात खोता है

चैन कभी ठिकाने नहीं मिलता
कहाँ जाने फिरता रोता है

Tuesday, January 4, 2011

ठंड़

जोरदार ठंड़ हो
रात हो, अकेले हों
सर पे न छत हो,
बदन पे न कंबल हो
घुप्प अंधेरे में बढ़ रहा कोहरा हो
तो ठंड़ यूं भगाईये-

गीत जोर-जोर से कोई गुनगुनाईये
अक्कड-बक्कड़ कुछ भी गाईये
धीरे-धीरे से शुरूकर चीखिये-चिल्लाईये
या बीड़ी हो पास तो उसको सुलगाईये
अद्दा पूरा
एक ही घूँट में गटकाइये
हो नहीं तो भी
दौड़-दौड़ खेत के
सारे जानवर भगाईये
दण्ड़ कुछ इस तरह
आप पेल जाइये
एक से शुरूकर
गिनती भूल जाईये

सुबह होने से पहले
न थकिये, न लड़खड़ाईये
ज़िदगी बचानी है तो
गिर मत जाइये

पहर के तड़के ही
दीनू के अलाव पर जाईये ही जाईये

हाँ तो फिर वहाँ-

ठंड़ की ही चर्चा में घुलमिल जाईये
आगे से तापिये तो पीछे से गल जाईये
दीनू काका, बाबा, ताऊ, फूफा, छोरा, भाई
सब के सब हुक्का पीते जाईये

शंकरा महाराज को जाते देख टोकिये-
"ताप ल्यो महाराज, जाड़ो बहुत जोर पै है
इत्ते सुबह काहे निकसे, दिन तो निकरे देते
ढंग को कछु पहन्यो नांई
बीमार पड़ जाओगे
मिसरानी मांईं कूं आफत में लाओगे"

फिर
धुन भंग होने पर -

मिसर महाराज का ठिठक के, दूर ही रुक जाना
कुरते की जेब में हाथ चुपके से पहुंचाना,
मुडे -तुडे नोटों को टटोल के
गरमी खींच लेना
और
"हाँ भाई! ठंड़ बहुत है"
बोल के
तेज-तेज कदमों से रास्ते पर जाते
दूर तक देखिये

और जब दीनूं काका
जोर से मिसर को सुना के कहे-
"मिसर कूं ठंड़ ना लगे भई
नोटन की गरमी है मिसर कै"

शंकरा महाराज की चाल को और तेज होती देख
आप भी ठहाका लगाईये
ठंड़ दूर भगाईये


(ठंड़ में जब दांत किटकिटाते हैं तो स्वर दीर्घ हो जाते हैं)