‘ख़ुदा’ है, यह कौन बताता है मुझे
ख़ुद अपना ही डर तो सताता है मुझे
ये अफ़सर है सियासत का नुमाइंदा
अर्ज़ी लेकर, कल फिर बुलाता है मुझे
अपने दरमियाँ है एक आग का दरिया
तू कहाँ और क़रीब बुलाता है मुझे
दास्ताने-ग़म जैसे दिखाने की चीज़ है
अपने ही बिस्तर में बुलाता है मुझे
मैं वहीं हूँ जहाँ मेरा साया है
साथ रखता है, साथ सुलाता है मुझे
खिलौना हाथ में देकर छीन लेता है
हँसाता है, फिर ख़ूब रुलाता है मुझे
दिले आशिक़ से उसका ठिकाना पूछा
बाम का चाँद इशारे से दिखाता है मुझे
Thursday, April 28, 2011
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