Saturday, January 30, 2010

मी मोहनदास करमचन्द बोलतोय

आइये आपको कुछ पीछे ले चलूं। यह समय है केन्द्र में बीजेपी सरकार, परमाणु विस्फोट, सरकार का गिरना से लेकर कारगिल युद्ध तक का। इस कविता का विचार तो मी नाथूराम बोलतोय से ही आया था हालांकि मैंने न तो कभी वह नाटक देखा है न पढ़ा। लेकिन महाराष्ट्र में उसे खेले जाने को लेकर कुछ विवाद उन दिनों अखबारों में पढ़ा था। उससे पहले एक ग़ज़ल महात्मा को समर्पित....

उनने जिसे नवाज़ा दिल की धड़कनों से
वो सफ़र थम गया है दुनिया की अड़चनों से

हाँ जनाब वो ही तो थे राहबर हमारे
हम राह पर लगे थे जिनकी झिड़कनों से

किस क़दर पुरसुकूँ थी उनकी रूहे-पाक
छूते ही भर गया था ये ज़िस्म सिहरनों से

दौलत तो कुछ नहीं थी, बस दिल का चैन ही था
लेकिन न बच सके वो फिर भी रहज़नों से

जो ये सफ़र दिया था, क्यूँ साथ वो दिये थे
क्यूँ जोड़ा बिजलियों का नाता नशेमनों से
.......................
..........
....

तो मेरी नज़र में महात्मा का बयान यू ँ है.....

मी मोहनदास करमचन्द बोलतोय !

लोकतंत्र !
हाँ मेरे पुत्रों ने किया था वो धर्म-यज्ञ
और उसमें मेरी आहुति भी उन्होंने ही दी
बिना किस प्रचार के यह यज्ञ मेरी मौजूदगी में ही शुरु हुआ
लेकिन आजादी के पचास वर्ष बाद
अचानक ! जब कम पड़ गई हवन सामग्री
तुम्हें इस यज्ञ के भीतर यज्ञ की भी भनक लग गई
तब तक मेरे मित्र के लड़के भी आ चुके थे यज्ञ-स्थल पर
और वे भी अपने को बता रहे थे मेरे असली वारिस
सम्पर्णाहुति का समय नहीं था यह, अभी
यज्ञ की प्रारम्भिक त्रुटियों के लिये बोले जा रहे थे शुद्धि-मंत्र

उसी समय कुछ बोलना चाहता था मेरा क़ातिल
अबकी बार मेरे घर से दूर लेकिन ज़रा ज़ोर-से
उसके अनिष्ट-सूचक शब्दों को बदल लिया गया हवन-सामग्री में
अन्तिम बचे पांच अक्षत भी प्रस्फूटित कर दिये गये थे (परमाणु परीक्षण)
लेकिन ज्वाला मांग रही थी एक बूढ़े और कुंआरे बकरे की बलि
बकरा तो स्वयं ही था पण्ड़ित
अपने हाथ रोक-कर कर देता था ज्वाला को शांत
यज्ञ बहुत लंबा था
एक ठिगनी बिरादरी के लम्बे आदमी ने
गुड़गुड़ा दिया बड़ी बिरादरी का हुक्का
इससे नाराज़ हो –
सभी सामन्तों ने रोक दिया सौगात भेजना

विकल्प ढूंढ़ लिये गये
जिसकी मंगल कामना के लिये था यज्ञ
उसे उपवास रखने के लिये कहा गया
नई व्यवस्था के शूद्र (गरीब) रोटी मांगते थे
उन पर काग़ज़ बिखेर दिये जाते थे
चूंकि प्याज बहुत मंहगा था उन दिनों
इसलिये सभी खाने लगे थे प्याज चटखारे ले-लेकर
तब लोग इस श्री-फल को खाया करते थे
आटे के बजट में कमी करके भी

अगली सदी में
औरतें आतुर थीं
आने को बांये से दांये
वे रच रही थी अपने लिये एक पुरुष-विहीन दुनियां
कुछ अति-आत्माभिमानी पुरुष तो हो भी गये इसके लिये तैयार
और कुछ जो लंगोट के कच्चे थे
मूंछे मुडवाकर चिपके रहना चाहते  थे स्त्री-अंगों से
वे दे रहे थे दुहाई अपने पुरुष न होने की
कर रहे थे याचना कि
औरतें ले जायें उन्हें उस नई दुनियां में
उन्हें मिल भी गये थे आश्वासन एक हिदायत के साथ
औरतों ने कहा था उन्हें एक ही पुरुष स्वीकार न होगा
जैसे पुरुषों को स्वीकार नहीं होती है एक ही पूरी स्त्री

उन्ही दिनों विश्वांत के देश रहा करता था एक प्रेमी-हृदय राजा
उसने सबसे बेहतर समझ लिया था देह का भेद
वो अपनी रूठी रानियों के होठों की सुर्खी ढूंढ़ने जाया करता था खाड़ी देश
और तेल के कुओं में उतरकर जलाया करता था चिराग
मेरा देश जो अब मौजूद था दो टुकड़ों में
दोनों ही राजाओं को हर समस्या में एक ही आसरा था
कश्मीर मेरे देश का
मेरे सखा-पुत्र तो कहा करते थे कि
एक हुए बिना अलग नहीं हुआ जा सकता
और मेरे वे पुत्र जो पाप तो थे किसी और का
लेकिन मेरा नाम मिल गया था जिन्हें
-पचास वर्ष और मांगते थे मेरी स्मृतियों को नष्ट करने के लिये
मुझे अब वे लोग इतने गलत नहीं लगते थे
जिनसे मैं मृत्यु पर्यन्त लड़ा था
और वे इतने कमज़ोर नहीं लगते थे
जिनके लिये लड़ा था

यज्ञ में होती हैं और भी कई बातें दरकार
जैसे कि जोड़े से बैठना
सर्वांगिणी जिसका कि अपने शरीर के अतिरिक्त
होता था एक और शरीर पर आधा अधिकार
शुरू से ही पुकारी जाती थी अर्द्धांगिनी
अबकी भरोसा दिया जाता तैंतीस प्रतिशती का

जिस दिन टूट गया था एक बहू का
श्मशानघाट का वैराग्य
उसने कर दिया मुकद्मा दायर
अपने पति का स्मृति-चिह्न मांग रही थी वही – वही कुर्सी
जिस पर बैठा करता था उसका पति
लेकिन तब तक बदल गये थे विरासत के नियम
ज्वाला भी कब तक देती पण्डितों का साथ बिना घी पिये
अन्तिम रात दो से तीन हो गई महिलायें
अचानक ही जो होना था हो गया
इधर-उधर होने लगी काम-चलाऊ बातें
सब थके-थके थे
बेहद उबाऊ माहौल में
एक-दो-तीन बाज़ीगरों ने दिखाना चाहा देशी-विदेशी खेल
लेकिन समानान्तर रूप से खड़ा हो गया सदी का सबसे महत्त्वपूर्ण
राष्ट्रीय प्रतिष्ठा और जीवन-मरण का प्रश्न
एक क्रिकेट के रूप में !
तब तो नास्तिकों ने भी मांगी दुआ देश की नाक बचा लेने के लिये
भगवान भरोसे थे, भगवान भरोसे ही रहे

क्यूंकि तब मेरे घर का समय था
बेहद काम-चलाऊ
तब भी पड़ौसी ने ही दिया सहारा
उसने कर दिया कारगिल में एक बेहद चलताऊ काम
वहीं से आ-आकर इकट्ठा हो रही हैं
मेरे पास मेरे देश की आत्मायें
देखो अभी भी कितने सुभाष, कितने भगत, कितनी लक्ष्मी
मौजूद हैं मेरे भारत में
शांति, सत्य और देश-प्रेम के ख़जाने गड़े हैं
फिर यह किन हाथों में पड़ गया यज्ञ
कौन बोल रहा है मंत्र, कौन दे रहा आहुति
हाय मैं ! भीष्म बनकर भी
असुरक्षित ही छोड़ आया हस्तिनापुर को

फिर दुर्योधन खरीदने लगा है कुशल महारथियों को
अर्जुन फिर बदलने लगा है गाण्डीव पर गाण्डीव
अभीमन्युमयी जनता घिरी है सात-सत्तर पापी यौद्धाओं से
कृष्ण चम्पत हो गये हैं धर्म को लेकर
ये लो होने ही वाली है शंख-ध्वनि
धृतराष्ट्र ने पूछ लिया है-
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवा
मामकाश्चपाण्डवा किम कुर्वतः संजय
संजय बेच रहा है समाचारों के बदले विज्ञापन

मैं देख रहा हूँ,
क्या स्वीकार करूं !!!
क्या अस्वीकार करूं!!!

Tuesday, January 26, 2010

चार पैसे !

चार पैसे !



रुकने नहीं देते

विचलित करते हैं मन को

कदमों को टिकने नहीं दे रहे हैं

कह नहीं सकता उद्विग्न हूँ मैं या उल्लसित

हाथ बार-बार जाता है

टटोल आता है

और साथ में लाता है एक संतुष्टि, एक धैर्य, एक विश्वास

एक सपना, एक उम्मीद, एक गर्व का भाव भी

एक बेचैनी सी उगाता

हाथ जब-जब टटोलकर आता है

तो साथ लाता है एक डर भी



देर रात तक नींद नहीं आती

और आँखें एक सपना-सा बुनती रहती हैं

नींद उचट जाती है

आधीरात में जैसे अचानक निकल आया हो दोपहर का सूरज

ओह ! याद भी तो नहीं रहता सपना

आखिर कितनी आसानी से सुलझ तो गई थी गुत्थी

कितनी आसानी से !

अब क्या ? अब क्या ! वो तो सपने में हुआ था

जो याद नहीं है अब मुझे



ओह ! मुझे क्या बना दिया है इसने

जब से आया है मेहनत के वृक्ष पर फल

कितनी मशक़्क़तों, कितने इंतज़ारों के बाद

कैसी घनघोर निराशा को चीर!

मेरी अधेड हड्डियों को फिर से युवा करते हुए

रगों में हो गई है ख़ून की रफ्तार तेज़

जैसे किसी दौड में भाग ले रहा हो रक्त

बुझती आँखों में अचानक भरदी है चमक

ऐसी कि !

मुद्दतों बाद शर्मा गई अर्द्धांगिनी भी



ओह हो ! कब होगी सुबहा

अभी पूरे तीन घण्टे बाकी हैं

कितना कठिन है खुद को संयमित रखना

करवटें बदलते शांत पड़े रहना भी

दुश्वार है, ओह ! बहुत कठिन

यदि नहीं हो वो

हाथ फिर चला जाता है टटोलने

मेरी ज़ेब में आजकल

दो नहीं, चार पैसे हैं

मैं क्या करूं !!!



मैं ऐसा तो नहीं था कभी

मुझे ऐसे तो पहले कभी नहीं लगे ये बच्चे

कुछ भी खास नहीं था इनकी माँ में

इन बूढ़े माँ-बाप के प्रति कभी तो नहीं था द्रवित

आज तो नहीं कोई खीझ, कोई उदासी, कोई अनमनापन

आज तो नहीं रह सकता मैं असम्पृक्त

भीतर-भीतर उठ रही हैं हिलोरें

उमड़ रहे हैं बादल वात्सल्य के, प्रेम के , करुणा के

ये ही चार पैसे तो मुग्ध किये जा रहे हैं मुझे

इस बेतरतीब से, उजड़े से, अस्तव्यस्त से घर पर



ये जो मुट्ठी में, ज़ेब में,

पत्नी के बटुए में, बैंक के खाते में

आलमारी की तिजोरी में

चार पैसे रखे हैं, बहुत गरम-गरम हैं



क्या करदूँ !

आज तो पूछ लूँ भाव

संतरे का, गुड़ का, जलेबी का

साडी का, साईकल का, आँख के आपरेशन का

बाय के, गठिया के तेल का

सूट का, सिलाई का, फ्रीज़ का

कूलर का, मेज़ का, कुर्सी का, फ्लैट का

बडी वाली चारपाई का, बिछिया का

रुमालों का, पिकनिक का

फिल्म के टिकिट का, पतंग का

बल्ले का, गेंद का, फ्रॉक का, जींस का

बैड़शीट का, कहानी का, पहेली का

आज तो पूछ लूँ मैं भाव

आज तो सौदा करने से पहले

जमकर कर सकता हूँ मोलभाव



ओह ! तो, ठेली वाले को

थड़ी वाले को, फुटपाथिये को

दुकान वाले को, परचूनी वाले को

माल वाले को, मेले वाले को

कम्पनी को, व्यापारी को, सरकार को

अफसर को, बाबू को, थानेदार को

नकल नवीस को, नाई को, मोची को, धोबी को

बिचौलिये को, दलाल को

सारे के सारे बाज़ार को

भनक लग गई है मेरी तिजोरी की,

ज़ेब की, बैंक खाते की



ओह ! तो सबने छोड़ रखे हैं जासूस मेरे पीछे

या, अर्द्धांगिनी नहीं रखती छुपाकर अपना बटुआ

या वो बातूनी औरत बघारती है बाज़ार में शेखी

ओह ! या मैं खुद ही नहीं रख पाता खुद को जब्त

ओह ! ये कमबख्त हाथ

बिना हुए चाक-चौकस

सरेआम, बार-बार जो चला जाता है टटोलने

ओह ! ये कांईया बाज़ार, लुच्चा !, बदमाश !

मेरे भोले-भाले बच्चों को बरगलाकर, बहला-फुसलाकर

उगलवा लेता है मेरे घर के राज़



खैर !

मैं बचूंगा बिचौलियों से, दलालों से

लाल-गुलाबी गालों से, काले-रंगीले बालों से

घमण्डी घरवालों से, अज़नबी बाहर वालो से

घुन्नों से, वाचालों से

दमकते गोरों से, मन के कालों से



ओह ! मैं तो निकला था घर से सपने लिये

धरती पर कदमों से सिवा कुछ था ही नहीं

तो चार कदम पर ही छोड गया !

सपना, उल्लास, उमंग, गर्व, धैर्य, संयम, विश्वास

चार ही कदम में हो गया रक्षात्मक !

हाथ फिर से बढ़ रहा है सावधानी से

टटोलकर नहीं लौटा इसबार

मुट्ठी में कसकर दबा लिये हैं उसने चार पैसे !

वाह ! मेरे हाथ, शाबाश !!!



ऊँचे चमकीले, दमकते, सुसज्जित

कालीनों से ढँके हैं जिनके फ़र्श

बहुमंज़िला इमारतों को दूर-दूर से घूरते

सड़क के दोनों ओर एक-एक पोस्टर को, इश्तहार को

अक्षरशः पढ़ते

घण्टों खड़ा रहता हूँ एक-एक दुकान के आगे
करता हूँ ताक-झाँक चोर-उचक्कों की तरह

सस्ते की तलाश में

इस कोने से उस कोने तक बाजार के

ठुकराता, लडखडाता

मुठ्ठी के दबाव में चार पैसों की रंगत बिगाड़ता

पैदल ही नापता हूँ मीलों की दूरियाँ





धीरे-धीरे

नज़र ने कर दिया है इंकार

बहुमंजिला माल की ओर देखने से

उठने से चमक-दमक के आगे



कदमों ने कर दिया है साफ मना

मेलों में जाने से

जहाँ इशारों से, इश्तहारों से, निमन्त्रण पत्रों से

अनुनय से, विनय से, प्यार से, मिठास से

नाम लेकर बुलाया जाता है आदर से

परिवार समेत,

नाचने-गाने के लिये, मनोरंजन के लिये

जहाँ सजाकर रखा है

सभ्यता को, संस्कृति को, इतिहास को, ज्ञान को

हमारी पहचान को

जहाँ एंजोय करने से पहले केवल रजिस्ट्रेशन है अनिवार्य

जहाँ नाचना गाना है

वहीं खरीदकर खाना है



नाक ने इंकार किया है तीखी गंध लेने से

और जीभ ने चटपटे-मीठे स्वाद से



हाथों ने भी खडे कर दिये हैं हाथ

मेलों में किताबों उठाकर पलटने से



कान नहीं दे रहे हैं कान

छूट पर, डिसकाउंट पर, फ्री के प्रस्तावों पर

किस्तों के ऑफर पर



मन ने साफ-साफ मना किया है

किसी भी लालच में फंसने से, भोग से, विलास से

विश्वास ने हाथ खैंच लिया है

बचत से, निवेश से, भरोसे से

ओह ! ओह ! शाबाश मेरी इन्द्रियों !!!



अब

आँख, कान, नाक, मन, हाथ, कदम

सब दौड़ते हैं सस्ते की तलाश में

छोटी, अंधेरी दुकानों की ओर

पतली, गंदी, बदबूदार गलियों में

सड़े, गले, बासी पर

शहर के बाहरी इलाकों में



जब थककर सब हो जाते हैं चूर

घर होने लगता हो दूर-दूर

घिरने लगे अंधेरा तो

सब थके-मांदे साथी साथ-साथ

एक-दूसरे को देते दिलासा

सुस्त-मुर्दानी चाल से

लौटते हैं घर



हाथ कसता है मुठ्ठी

और भर जाता है विजयी भाव से

हथेली में अभीतक मौजूद हैं चार पैसे

चाहे उड गई हो रंगत

पर पूरे चार के चार



घिर आये हैं बच्चे

पास आयी है पत्नी

खुल गई है मुठ्ठी



सबने संभाला नया सामान

पडौसियों को भिजवादी है खबर

हमारे घर आया है संतोष !!!

Friday, January 22, 2010

सियासत

यह कविता मैंने 1995-96 में लिखी थी। तब नहीं सोचा था कि 15 वर्ष बाद भी इसे किसी को सुना सकूंगा।
सियासत

मैं नहीं जानता अर्थ सरहदों का
क्यूंकि  नहीं है मेरे पास सियासत
मैं नहीं कर सकता भेद हक़ों में
क्यूंकि नहीं है मेरे पास कोई हक़

वो भर देते हैं रंग वादियों में
लौटा लाते हैं हवाओं को अपनी-अपनी सरहदों के सहारे
मैंने तो रंग कभी देखे भी नहीं
हमेशा उन हवाओं ने छुआ मुझे
जो फैला दीं उनने मेरे आसपास

सरहद के इधर या उधर
मेरे पास तो है दर्द ही दर्द
क्यूँ कि मैं तो अवाम
इस मुल्क़ की या उस मुल्क़ की

जो कह देते हैं वे मान लेता हूँ मैं
मुझसे माँगा जात है मत
और अगर मैं विचारने लगूँ
तो फिर कहा जाता है मत
कभी-कभी उनकी आँखों में आँखें डाल
उनकी सीधी उंगली को पहचान
जब मैं भी कह देता हूँ मत
तब उनकी आँखों से बरसती है एक ज्वाला!
यदाकदा जब मेरे आसपास के मत
मेरे मत से मिल टकराते हैं उनकी गर्जना से
तब होता है एक धमाका sssssssss!’
नहीं रह जाती  उन्हें जरूरत हमारे मत की।

वो जाते हैं दूर-दूर, कहते हैं देश-देश
कि वो लेकर आये हैं मेरी बात,
वो करते हैं मेरे मन की बात
जब कभी मैं खुद कहना चाहूँ अपनी बात
बंद कर देते हैं मेरा मुंह उनके हाथ
वो कहते हैं—
उन्हें मैंने बनाया, दिल्ली भी मैंने ही भेजा, बैठाया आसनों पर
मैं तो कबसे भेजना चाह रहा हूँ अपना दुःख कहीं भी/ हिलता ही नहीं निर्लज्ज
कब से बनाना चाह रहा हूँ अपना झौंपड़ा / नहीं बनता पूरा
मेरे अर्द्धनिर्मित झौंपड़े जल जाते हैं खुद-ब-खुद

उनके ज़हन में हैं बड़ी-बड़ी योजनायें
क़ाग़जों में नियोजित है समूचा भविष्य
कहते हैं—उन सबमें मेरी ही है तस्वीर
जब खुद चला जाता हूँ कभी सामने
नहीं सुहाता मैं उन्हें फूटी आँख

सब जानते हैं वो
मैं कब कैसा करूंगा व्यवहार
क्या है मेरी बात
किसे मान लूंगा अपनी सरहद
मेरे ही हाथों सम्पन्न करवायेंगे वो मेरा भविष्य
क्यूंकि उनके पास मौजूद है सियासत।

Wednesday, January 13, 2010

बहुत ठंड़ है भाई !

बहुत ठंड़ है भाई !

जोरदार ठंड़ हो
रात हो, अकेले हों
सर पे न छत हो,
बदन पे न कंबल हो
घुप्प अंधेरे में बढ़ रहा कोहरा हो


तो ठंड़  यूं भगाईये-

गीत जोर-जोर से कोई गुनगुनाईये
अक्कड-बक्कड़ कुछ भी गाईये
धीरे से शुरूकर चीखिये-चिल्लाईये
या बीड़ी हो पास तो उसको सुलगाईये
अद्दा पूरा
एक ही घूँट में गटकाइये
हो नहीं तो भी
दौड़-दौड़ खेत के
सारे जानवर भगाईये
दण्ड़ कुछ इस तरह
आप पेल जाइये
एक से शुरूकर
गिनती भूल जाईये

सुबह होने से पहले
न थकिये, न लड़खड़ाईये
ज़िदगी बचानी है तो
गिर मत जाइये

पहर के तड़के ही
दीनू के अलाव पर जाईये ही जाईये

हाँ तो फिर वहाँ-

ठंड़ की ही चर्चा में ही घुलमिल जाईये
आगे से तापिये तो पीछे से गल जाईये
दीनू काका, बाबा, ताऊ, फूफा, छोरा, भाई
सब के सब हुक्का पीते जाईये

शंकरा महाराज को जाते देख टोकिये-
"ताप ल्यो महाराज, जाड़ो बहुत जोर पै है
इत्ते सुबह काहे निकसे, दिन तो निकरे देते
ढंग को कछु पहन्यो नांई
बीमार पड़ जाओगे
मिसरानी मांईं कूं आफत में लाओगे"

फिर
धुन भंग होने पर -

मिसर महाराज का  ठिठक के, दूर ही रुक जाना
कुरते की जेब में हाथ चुपके से पहुंचाना,
मुडे -तुडे नोटों को टटोल के
गरमी खींच लेना
और
"हाँ भाई! ठंड़ बहुत है"
बोल के
तेज-तेज कदमों से रास्ते पर जाते
दूर तक देखिये

और जब दीनूं काका
जोर से मिसर को सुना के कहे-
"मिसर कूं ठंड़ ना लगे भई
नोटन की गरमी है मिसर कै"

शंकरा महाराज की चाल को और तेज होती देख
आप भी ठहाका लगाईये
ठंड़ दूर भगाईये


(ठंड़ में जब दांत किटकिटाते हैं तो स्वर दीर्घ हो जाते हैं)

Wednesday, January 6, 2010

आज़ादी

आज़ादी

मेरे देश में आज़ादी  है
15 अगस्त 1947 को हमको मिली
रात बारह बजे
अंधेरे में हम नहीं देख पाये रंग
हमने टटोलकर ही पहचानी और ले ली आजादी

अब मेरे देश में
आज़ाद हैं अफ़सर, आज़ाद हैं बाबू
नेता, कार्यकर्ता, व्यापारी, उद्यमी, ठेकेदार
सूदखोर, कर्ज़दार, नौकर, मालिक
आजाद हैं बंधुआ,
अध्यापक आज़ाद हैं, आज़ाद हैं छात्र

आजाद हैं कवि, आज़ाद हैं आलोचक
चित्रकार, अभिनेता, पेंटर, नर्तक, रंगकर्मी
गवैये, दर्शक, श्रोता, पाठक आज़ाद हैं,
लेखक आज़ाद हैं, वक्ता, पत्रकार आज़ाद हैं
स्वयंसेवी, समाजसेवी, कारसेवक, हरावल दस्ते
सब आज़ाद हैं
संगठन आज़ाद हैं, आज़ाद हैं गिरोह
आज़ाद हैं गठजोड़, और आज़ाद है

आजाद हैं ईमानदार और आज़ाद हैं बेईमान
हत्यारे, चोर, ठग, सूदखोर, ज़ेबकतरे
मिलावटिये, डाकू आजाद हैं
आज़ाद हैं साम्प्रदायिक, आज़ाद हैं आतंककारी

आज़ाद हैं संकीर्ण, आजाद हैं उदार
आज़ाद हैं भूखे, भिखारी, भगवान
आज़ाद हैं दाता, दयालु, दानव
अमीर आज़ाद हैं, ग़रीब आज़ाद हैं
आज़ाद हैं आज़ाद
और आज़ाद हैं गुलाम
आज़ादी है मेरे देश में
जो जैसा बनना चाहे बने
जैसा रहना चाहे रहे
इमानदार को पूरी आज़ादी है ईमानदारी की
और बेईमान को बेईमानी की

ऐसी दिलकश आज़ादी को
लगा कर रखेंगे काला टीका
उतार कर रखेंगे नज़र

कुछ भितरघाती अभी 63 वर्ष बाद भी
रखते हैं टेढ़ी नज़र हमारी आज़ादी पर
वे गुलामी करते हैं कानून की, नियम की
चलते हैं संभलकर, रखते हैं नीची नज़र
सर पर उठाये रहते हैं मानवता
भाईचारा, सत्य का टोकरा
वे डरते हैं, राम से, काम से, आम से,

बस एक ताबीज़ और
फिर अक्षुण्य हैं मेरे देश की
हमारी आज़ादी
पूरी आजादी दी जायेगी
ईमानदार को ईमानदारी की
बेईमान को बेईमानी की


बचना

कुछ लोग आये
हिन्दु को मारने
कुछ मुसलमान को
कुछ क्रिश्चन को,
इसी तरह कुछ जैन को, कुछ सिख को,
यहूदी को,
कुछ आस्तिक को कुछ नास्तिक को मारने आये
मुझसे पूछा तू कौन?’
मैं डर के मारे भूल गया मैं कौन?’
मैंने डरता-डरता बोला मनुष्य !’
मुझे किया गया लात मारकर एक तरफ़
और मैं बच गया

कुछ लोग आये
हिन्दु को बचाने
कुछ मुसलमान को
कुछ क्रिश्चन को
इसी तरह कुछ जैन को, कुछ सिख को
यहूदी को, बौद्ध को
कुछ आस्तिक को, कुछ नास्तिक को
मुझसे पूछा तू कौन?’
मैं खुशी के मारे भूल गया मैं कौन?’
मैंने उत्साह में चीखकर बोला मनुष्य !’
मुझे किया गया लात मारकर एक तरफ़
और मैं बच गया