Saturday, January 30, 2010

मी मोहनदास करमचन्द बोलतोय

आइये आपको कुछ पीछे ले चलूं। यह समय है केन्द्र में बीजेपी सरकार, परमाणु विस्फोट, सरकार का गिरना से लेकर कारगिल युद्ध तक का। इस कविता का विचार तो मी नाथूराम बोलतोय से ही आया था हालांकि मैंने न तो कभी वह नाटक देखा है न पढ़ा। लेकिन महाराष्ट्र में उसे खेले जाने को लेकर कुछ विवाद उन दिनों अखबारों में पढ़ा था। उससे पहले एक ग़ज़ल महात्मा को समर्पित....

उनने जिसे नवाज़ा दिल की धड़कनों से
वो सफ़र थम गया है दुनिया की अड़चनों से

हाँ जनाब वो ही तो थे राहबर हमारे
हम राह पर लगे थे जिनकी झिड़कनों से

किस क़दर पुरसुकूँ थी उनकी रूहे-पाक
छूते ही भर गया था ये ज़िस्म सिहरनों से

दौलत तो कुछ नहीं थी, बस दिल का चैन ही था
लेकिन न बच सके वो फिर भी रहज़नों से

जो ये सफ़र दिया था, क्यूँ साथ वो दिये थे
क्यूँ जोड़ा बिजलियों का नाता नशेमनों से
.......................
..........
....

तो मेरी नज़र में महात्मा का बयान यू ँ है.....

मी मोहनदास करमचन्द बोलतोय !

लोकतंत्र !
हाँ मेरे पुत्रों ने किया था वो धर्म-यज्ञ
और उसमें मेरी आहुति भी उन्होंने ही दी
बिना किस प्रचार के यह यज्ञ मेरी मौजूदगी में ही शुरु हुआ
लेकिन आजादी के पचास वर्ष बाद
अचानक ! जब कम पड़ गई हवन सामग्री
तुम्हें इस यज्ञ के भीतर यज्ञ की भी भनक लग गई
तब तक मेरे मित्र के लड़के भी आ चुके थे यज्ञ-स्थल पर
और वे भी अपने को बता रहे थे मेरे असली वारिस
सम्पर्णाहुति का समय नहीं था यह, अभी
यज्ञ की प्रारम्भिक त्रुटियों के लिये बोले जा रहे थे शुद्धि-मंत्र

उसी समय कुछ बोलना चाहता था मेरा क़ातिल
अबकी बार मेरे घर से दूर लेकिन ज़रा ज़ोर-से
उसके अनिष्ट-सूचक शब्दों को बदल लिया गया हवन-सामग्री में
अन्तिम बचे पांच अक्षत भी प्रस्फूटित कर दिये गये थे (परमाणु परीक्षण)
लेकिन ज्वाला मांग रही थी एक बूढ़े और कुंआरे बकरे की बलि
बकरा तो स्वयं ही था पण्ड़ित
अपने हाथ रोक-कर कर देता था ज्वाला को शांत
यज्ञ बहुत लंबा था
एक ठिगनी बिरादरी के लम्बे आदमी ने
गुड़गुड़ा दिया बड़ी बिरादरी का हुक्का
इससे नाराज़ हो –
सभी सामन्तों ने रोक दिया सौगात भेजना

विकल्प ढूंढ़ लिये गये
जिसकी मंगल कामना के लिये था यज्ञ
उसे उपवास रखने के लिये कहा गया
नई व्यवस्था के शूद्र (गरीब) रोटी मांगते थे
उन पर काग़ज़ बिखेर दिये जाते थे
चूंकि प्याज बहुत मंहगा था उन दिनों
इसलिये सभी खाने लगे थे प्याज चटखारे ले-लेकर
तब लोग इस श्री-फल को खाया करते थे
आटे के बजट में कमी करके भी

अगली सदी में
औरतें आतुर थीं
आने को बांये से दांये
वे रच रही थी अपने लिये एक पुरुष-विहीन दुनियां
कुछ अति-आत्माभिमानी पुरुष तो हो भी गये इसके लिये तैयार
और कुछ जो लंगोट के कच्चे थे
मूंछे मुडवाकर चिपके रहना चाहते  थे स्त्री-अंगों से
वे दे रहे थे दुहाई अपने पुरुष न होने की
कर रहे थे याचना कि
औरतें ले जायें उन्हें उस नई दुनियां में
उन्हें मिल भी गये थे आश्वासन एक हिदायत के साथ
औरतों ने कहा था उन्हें एक ही पुरुष स्वीकार न होगा
जैसे पुरुषों को स्वीकार नहीं होती है एक ही पूरी स्त्री

उन्ही दिनों विश्वांत के देश रहा करता था एक प्रेमी-हृदय राजा
उसने सबसे बेहतर समझ लिया था देह का भेद
वो अपनी रूठी रानियों के होठों की सुर्खी ढूंढ़ने जाया करता था खाड़ी देश
और तेल के कुओं में उतरकर जलाया करता था चिराग
मेरा देश जो अब मौजूद था दो टुकड़ों में
दोनों ही राजाओं को हर समस्या में एक ही आसरा था
कश्मीर मेरे देश का
मेरे सखा-पुत्र तो कहा करते थे कि
एक हुए बिना अलग नहीं हुआ जा सकता
और मेरे वे पुत्र जो पाप तो थे किसी और का
लेकिन मेरा नाम मिल गया था जिन्हें
-पचास वर्ष और मांगते थे मेरी स्मृतियों को नष्ट करने के लिये
मुझे अब वे लोग इतने गलत नहीं लगते थे
जिनसे मैं मृत्यु पर्यन्त लड़ा था
और वे इतने कमज़ोर नहीं लगते थे
जिनके लिये लड़ा था

यज्ञ में होती हैं और भी कई बातें दरकार
जैसे कि जोड़े से बैठना
सर्वांगिणी जिसका कि अपने शरीर के अतिरिक्त
होता था एक और शरीर पर आधा अधिकार
शुरू से ही पुकारी जाती थी अर्द्धांगिनी
अबकी भरोसा दिया जाता तैंतीस प्रतिशती का

जिस दिन टूट गया था एक बहू का
श्मशानघाट का वैराग्य
उसने कर दिया मुकद्मा दायर
अपने पति का स्मृति-चिह्न मांग रही थी वही – वही कुर्सी
जिस पर बैठा करता था उसका पति
लेकिन तब तक बदल गये थे विरासत के नियम
ज्वाला भी कब तक देती पण्डितों का साथ बिना घी पिये
अन्तिम रात दो से तीन हो गई महिलायें
अचानक ही जो होना था हो गया
इधर-उधर होने लगी काम-चलाऊ बातें
सब थके-थके थे
बेहद उबाऊ माहौल में
एक-दो-तीन बाज़ीगरों ने दिखाना चाहा देशी-विदेशी खेल
लेकिन समानान्तर रूप से खड़ा हो गया सदी का सबसे महत्त्वपूर्ण
राष्ट्रीय प्रतिष्ठा और जीवन-मरण का प्रश्न
एक क्रिकेट के रूप में !
तब तो नास्तिकों ने भी मांगी दुआ देश की नाक बचा लेने के लिये
भगवान भरोसे थे, भगवान भरोसे ही रहे

क्यूंकि तब मेरे घर का समय था
बेहद काम-चलाऊ
तब भी पड़ौसी ने ही दिया सहारा
उसने कर दिया कारगिल में एक बेहद चलताऊ काम
वहीं से आ-आकर इकट्ठा हो रही हैं
मेरे पास मेरे देश की आत्मायें
देखो अभी भी कितने सुभाष, कितने भगत, कितनी लक्ष्मी
मौजूद हैं मेरे भारत में
शांति, सत्य और देश-प्रेम के ख़जाने गड़े हैं
फिर यह किन हाथों में पड़ गया यज्ञ
कौन बोल रहा है मंत्र, कौन दे रहा आहुति
हाय मैं ! भीष्म बनकर भी
असुरक्षित ही छोड़ आया हस्तिनापुर को

फिर दुर्योधन खरीदने लगा है कुशल महारथियों को
अर्जुन फिर बदलने लगा है गाण्डीव पर गाण्डीव
अभीमन्युमयी जनता घिरी है सात-सत्तर पापी यौद्धाओं से
कृष्ण चम्पत हो गये हैं धर्म को लेकर
ये लो होने ही वाली है शंख-ध्वनि
धृतराष्ट्र ने पूछ लिया है-
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवा
मामकाश्चपाण्डवा किम कुर्वतः संजय
संजय बेच रहा है समाचारों के बदले विज्ञापन

मैं देख रहा हूँ,
क्या स्वीकार करूं !!!
क्या अस्वीकार करूं!!!

No comments: