देता है मुझे भी वो आवाज़ ऐसे
मेरा साया नहीं, हो ज़ल्लाद जैसे
छोड़कर दूर निकल जाता है
ज़्यादा है उसकी परवाज़ जैसे
ज़हन उलझन से भरा रहता है
मैं करूं अक़़्ल की बात कैसे
मिलता है मुझे काम तो लेकिन
कम ही आते हैं मेरे हाथ पैसे
मुझसे मेरी अब नहीं निभती
मेरी बातें ऐसी हैं, अंदाज़ ऐसे