Friday, November 5, 2010

ग़ज़ल

1.

पेड़ भी है और पेड़ का तना है
मगर पेड़ पर चढ़ना मना है

बेच सकता हूँ उसे गर ख़रीदो
मेरे ख़्वाबों में एक महल बना है

मेरे एकस्व की राशि मुझे दो
तुम्हारे लिये मैंने सपना बुना है

सुनी थी मैंने एक सर्कस की चर्चा
वही संसद में होता है, सुना है

कहते हैं उधर अपना ही घर है
यह भी सुनते हैं उधर जाना मना है

इस मार्ग में यहीँ से लौट जाओ
आगे चलकर अँधेरा घना है

बड़ा मौन है, घर में कलह होगा
हरेक शख़्स ऐसे ही तना है

2.

तुमसे पहले यहाँ आये बहुत हैं
जंगल में दरख़्तों के साये बहुत हैं

ख़ामोश थे जब यहाँ से गये वो
यहाँ बैठकर छटपटाये बहुत हैं

हाँ! चाँद ठंडा है धरती से ज़्यादा
हमने भरम ऐसे खाए बहुत हैं

ये ऐसी ख़ुशी है कि रोना पड़ेगा
गीत इसके तुमने गाए बहुत हैं

उनसे न पूछो पानी की पीड़ा
वो तो फ़क़त नहाये बहुत हैं

मेरे दुःखों ने उन्हें तोड़ डाला
घड़ियाली आँसू बहाये बहुत हैं

मैं शाप देता हूँ तुम्हें तश्नगी का
तुमने जो लोग सताये बहुत हैं

ये अलग बात है कि ज़मीं पे नहीं हैं
काग़ज़ पे पेड़ लगाये बहुत हैं

देखो तुम्हीं कैसे बेघर हुए हो
तुमने ही घर जलाये बहुत हैं

हम ही सबकी नज़र से परे हैं
हमें लोग यहाँ पर भाये बहुत हैं

Wednesday, April 21, 2010

मैं और मेरा अपना पानी

मुझे जब भी, जहाँ भी दिखा पानी
मैंने उसे उठा लिया गोद में,
पीठ पर लाद लिया, सर पे उँच लिया पानी
कंधे भर गये, हाथ भर गये घुटने बल खाने लगे
तो मैंने कलेजे में रख लिया
आँख भरली तो ज़ुबां पर बिठा लिया

मुझे जब भी, जहाँ भी मिला पानी
मैंने उसे ले लिया
हलराय, दुलराया, पुचकारा, थपकाया, चूमा मैंने
कभी मचला भी, लात मारी भी पेट पर
बाल भी नोचे
तब भी मैंने नहीं उतारा अपना पानी
और मना ही लिया उसे

मैंने आसमानों का पानी झेला
धरती से खींचा
हवाओं से सोखा
दिशाओं के पानी को कर लिया सम्मोहित
मृग-मरीचिकाओं से झपट सपनों में भर लिया
मैं खूब डूबा-उतराया मेहनत के पानी में
सूखने नहीं दिया पसीने का पानी
उसे सहेज लिया अंगोछे में
नमक के पानी को शामिल किया अपनी भूखों में

मुझे जब भी, जहाँ भी, जो भी खाली दिखा
मैंने उसमें उंडेल दिया अपना पानी
खुले कुंओं से, ट्यूब-वैल से
लाव-चड़स से, उंट-बैल से
रहट से,
रस्सी-डोल से
इंजिन-बिलजी से
नहर से, नदी से
खेतों में, क्यारियों में भरा पानी
नदियों से भरा अंजुलियों में
नली-नालों से, गड्ड़ों से भरा

पेड़-पौधों में, गमलों-बागों में, दूब में
जड़ों में,फूल-पत्तियों में मैंने भरा
तो फलों में खुद ही भर गया पानी

झील से, झरनों से,
तालाब से, तलाई से,
लौटे-डोर से नल से,
टैंकरों से, हैण्ड पम्पों से,
मटकों-घड़ों, बाल्टियों में, टबों में, चरियों में, टैंक-टंकियों में,
बरतन-बरतन में
मैंने दियों में,डिबसों में, खिलौनों में भरा
मुँह में, आँख में, कान में, नाक में,
घुटनों में, कुहनियों में, पीठ में, नाभि में भरा
मैं नहाया, डूब-डूब गया पानी में
तुमको देखा तो मेरी आँखों में उतर आया पानी

मुझसे पहले वो छुपा था धरती में
आसमानों में चढ़ा बैठा था
मैंने वर्षातों को समेटा और
घरों, छतों, गली-मोहल्लों, सड़कों में भर लिया
आंगन में, दीवारों में भरा
बजरी में, सीमेंट में, ईंट में भी
फिर मैंने पत्थर में भी भर दिया पानी
बालू में भरा, मिट्टी में भरा
मशीन में,
जब मैंने लोहे में भरा तो चीखा पानी
पर मैंने भर ही दिया तो हंसने लगा

बर्फ में था, मैंने उसे आग में भरा
चून में(आटे में), सब्जी में, स्वाद में, सुगंध में
रूखी-सूखी गोली-दवा में, दारू के गिलास में भी

अरे हाँ रे!
सर्दी में, गर्मी में भी दिन में और रात में भी,
मैंने ठंड़ा पानी भरा, गरम-गुनगुना भरा
लौटे में भरा शीतल पानी
और बैठा रहा राह में राहगीरों की
चिड़ियों के लिये भरा फूटे मटकों में
ढोरों के लिये खेल-कोठों में
मछलियों के लिये समन्दर भरे
रेगिस्तानों के लिये प्याऊ में

मेरे साथ हमेशा रहा पानी
चुल्लू में, आँख में, बोली में, हंसी ठिठौली
मेरे स्पर्श में,
लड़ने-झगड़ने में भी, रूठने-मनाने में भी था

माँ ने मुझे बनाया था तरल खून से
दूध से नहलाया था
मेरी जड़ों को सींचा था पानी से
मैं हमेशा रहा पानी में, पानी हमेशा रहा मुझमें
पिता की छाया में था पानी

मैं जब भी, जहाँ भी, जिधर भी, जिसे भी देखता हूँ
सूखने लगा है पानी,

पेड़-पौधों में, जड़ों में, फूल-पत्ती में, दूब में
रंगो में, हरे में, न लाल में
खेल-कोठों में, न टूटे मटकों में
कहीं नहीं है पानी
खाली हैं लौटे, खाली हैं चुल्लू
मृग-मरीचिकाओं तक से उड़ गया पानी

बरतनों में सूखने से पहले वह सूख गया कुंओं, हैण्डपम्पों में, नलों में
खेतों में सूखने पहले वह सूखा नहरों-नदियों में, धरती में
बरसातों में सूखने से पहले पातालों में
शब्दों में सूखने से पहले बोली में
आँखों से पहले कलेजों में सूखा
आँचलों में सूख गया जडों से पहले
पिताओं में सूखा है बेटों से पहले
समन्दरों से पहले नदियों में सूखा
नदियों से पहले वर्षातों में
वर्षातों से पहले ऋतुओं में
ऋतुओं से पहले काल(समय) में सूखा पानी
समय से पहले, बहुत पहले
मनुष्यों में सूखा पानी

एक सपना देखता हूँ
कि फिर से बढ़ सके, फल-फूल सके
कि फिर कभी चप्पे-चप्पे में,
खांचे-खांचे में भर जाये पानी
जैसे हिलौरें मारता था मेरी आँखों में कभी
वैसे ही तटों से हुजलता रहे कभी मेरी संततियों के
सोचता हूँ
जो बचा है थोड़ा-बहुत पानी
उसे उंडेलता चलूं मूल स्रोत में
अपनी संततियों की जड़ों में रीता दूं अपना हृदय
आँखे रीता दूं उनकी आँखों में
बोली को उल्टाकर खाली करदूं उसकी नमी नई भाषा में
कि लगादूं पानी के वृक्ष
जिन पर कभी तो लगें पानी के फल

Friday, April 16, 2010

नक्सलवादः किसे मारा जाना चाहिये ( पहली किस्त)

मेरे दिमाग में नक्सलवाद गूंज रहा है। दांतेवाड़ा के बाद कुछ ज्यादा ही। ब्लाग में इधर-उधर नज़र दौड़ाओ तो कदम - चार कदम पर एक लेख नक्सलवाद पर उपलब्ध है। मुझे नक्सलवाद, माओवाद की इतनी ही जानकारी है कि लोग मर रहे हैं मार रहे हैं, मैं व्यथित हूँ इस मार-काट से। मैं और ज्यादा व्यथित होता हूँ जब मार-काट के पक्षधर और इसे औचित्य प्रदान करने वाले लेख पढ़ता हूँ। मैं हैरान रह जाता हूँ जब यह सुनता हूँ कि एक लोकतांत्रिक देश में मारकाट और बंदूक विचारधारा के अंग हैं। इस माहौल में अपने दुःख को जुबान पर लाने के लिये मुंह खोलो तो भौंचक्के रह जाओगे कि जिसे सुनाने जा रहे हो उसके लिये तो यह भावुकता का विषय ही नहीं है, उसके लिये तो इसके राजनीतिक आयाम हैं और वह चिंतन कर रहा है। आप खुश होंगे जब पायेंगे कि भावुकता वहाँ भी बहुत है लेकिन अपना-सा मुंह ले के रह जायेंगे जब आपका विवेक बार-बार उस भावुकता की सुनियोजितता का पर्दाफाश कर रहा होगा। अब कोई भी यह उम्मीद तो नहीं कर सकता कि किसी उलझे हुए मसले को समझने में बुद्धिजीवी समाज कोई सहायता कर सकता है, सारा बुद्धिवाद भाषा की चालाकी और भावुकता की अय्यारी पर सर के बल करतब करता है। सहजता, निष्कपटता, निष्पक्षता, मानवता, उदारता, अपनत्व, प्रेम, भाईचारा आदि का बुद्धिवाद से कब का तलाक हो चुका है, हाँ उसके औज़ारों पर खोल इन्हीं के हैं और ब्रांडनेम भी यही हैं। बुद्धिवाद के पास ये जाल की तरह हैं जिनमें मछलियाँ फंसाई जा सकती हैं। बुद्धिवाद की राजनीतिक दिलचश्पियाँ भी जग जाहिर हैं, वह कवि, चित्रकार, साहित्यकार, दार्शनिक होते हुए भी मनुष्य को मनुष्य की तरह देखने से परहेज करता है, उसके लिये अपना-पराया खास महत्त्व रखता है।राजनीतिक चश्मा उसके शरीर के अंग की तरह है। बुद्धिवाद का व्यावसायिक क्षेत्र भी अत्यन्त विस्तृत है, कोई कैसी भी मूर्खता करे, कैसा भी अपराध करे, आप दो बिल्लकुल परस्पर विरोधी कार्य करें आपको सबके पक्ष में पर्याप्त बुद्धिजीवी उपलब्ध हैं, नामचीन से लेकर गली के बुद्धिजीवी तक। इसलिये इस आधार पर कि कौन किस पक्ष में है, कुछ तय नहीं होता, तय नहीं होता है कि सही क्या है और गलत क्या है!
हम सुरक्षाकर्मियों की मौत पर विलाप करते लेख पढ़कर भी संतुष्ट नहीं हो सकते हैं क्योंकि बहुत चालाकी से सरकार को ही उनकी हत्यारी सिद्ध किया जा रहा होगा। नक्सलियों के कृत्य को अनुचित तो बताया जा रहा होगा लेकिन सारा जोर इसे उनकी मजबूरी सिद्ध करने पर होगा, बहादुरी, रणनीति के लिये उन्हें शाबासी भी दी गई होगी।
बचपन में डाकुओं का कहानी खूब सुनने को मिलती थी। कहानियों की रचना इस प्रकार की होती थी कि अंततः डाकू हीरो बनकर ही उभरता था। डाकू कितना दयालू है, वह हत्यायें भी नैतिक नियमों के तहत करता है। उसकी क्रूरता में मानवाता का आधार है। वह अत्यन्त वीर है, तीक्ष्ण बुद्धि है। बस! डाकू बनने का ही मन करता था। वह अमीरों को लूटता है और गरीबों को धन बांटता है। कई कहानियों में तो राजा ही रात को डाकू बनकर निकलता था। कोई डाकू क्यूँ बना इसमें व्यवस्था का कोई न कोई कारण अवश्य होता था। कहानी इतनी महान होती थी कि जब तक राजकुमारी की शादी डाकू से नहीं हो चैन नहीं पड़ता था। नक्सलवाद पर कई लेख पढ़ते हुए वे कहानियाँ बार-बार याद आती हैं। जिस तरह बालसुलभ मन में बडे होकर डाकू बनने की इच्छा अंगडाई लेती थी उसी तरह कुछ खाये-अघाये लोगों के लिये माओवादी होना एक एडवेंचर है, उन्हें जीवन में कुछ करना है ! उनके लिये “मरा कौन” का कोई प्रश्न नहीं है, “मारा किसने?” उन्हें इसी से मतलब है।
अब बात मुद्दे कीः- मुझे नक्सलवादी पृष्ठभूमि का ज्ञान न्यूनतम भी नहीं है, मैं उन इलाकों में कभी नहीं गया। हालांकि कुछ ऐसी अफवाहें हैं कि यहाँ राजस्थान में भी कई स्थानों पर नक्सलवादीयों की बैठकें हो चुकी हैं लेकिन प्रत्यक्षतः ऐसा कोई लक्षण आसपास नहीं है। यदाकदा ऐसे उत्पात राजस्थान में हो जाते हैं जिनसे यहाँ नक्सलवाद के बीज पैदा हो सकते हैं। इसलिये मैं उन सब तथ्यों को स्वीकारकर और सत्य मानकर, जो नक्सलवाद के कारणों में गिनाये जाते हैं, नक्सलवादी हिंसा पर विचार करता हूँ। मेरे पास कहने को ज्यादा कुछ नहीं है। यह मानकर भी कि आदिवासियों को जंगल और जमीन से बेदखल किया जा रहा है, सरकारें उनका दमन कर रही हैं, उन इलाक़ों में विकास नही हुआ है वहाँ शिक्षा नही है, चिकत्सा नहीं है, मुझे एक भारतीय होने के नाते यह स्वीकार करने में कठिनाई होती है कि नौबत हथियार उठाने की और मारकाट की आ गई है। एक गुलाम देश की जनता द्वारा विदेशी सत्ता के विरुद्ध या राजशाही के विरुद्ध तो हिंसा की बात गले उतर सकती है लेकिन वर्तमान भारत की सरकार के खिलाफ सुनियोजित और संगठित हिंसा समझ से परे है।

हमारे देश में विकास और नीति-निर्माण का कार्य लोकतांत्रिक सरकारों के अधिकार में हैं। क्या सरकारें नक्सल-प्रभावित क्षेत्रों में चुनाव नहीं करवाती हैं? हो सकता है राजनीतिक दल वहाँ बाहर के उम्मीदवारों को प्रत्याशी बनाते हों (!) लेकिन क्या आदिवासियों के राजनीतिक दल गठन पर रोक या निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ने पर कोई रोक(-टोक) है ? क्या उन इलाकों के पंच, सरपंच, प्रधान, जिला प्रमुख, विधायक और सांसद चुनने वाले मतदाता भी बाहरी क्षेत्रों से आते हैं? क्या वहाँ के आदिवासियों से मतदान करने का अधिकार छीन लिया गया है ? क्या इन इलाकों के चुने गये जनप्रतिनिधियों को निर्णय प्रक्रिया में भागीदारी करने पर प्रतिबंध है ? क्या इन इलाक़ों के लिये विकास की नीतियाँ और अन्य नीतियाँ बाहर के राज्यों से बन कर आती हैं ? इन इलाक़ो में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का बहिष्कार कौन करता है ? कौन क्षेत्रीय लोगों को मतदान करने से धमकाता है, मतदान कर्मियों को गोलियों से भून डालता है ? मत पेटियों को कौन लूट लेता है ? नक्सलियों का स्थानीय जनाधार अपने नेताओं को लोकतांत्रिक वैधता प्रदान करने में क्या कठिनाई महसूस करता है ? घरों से स्थानीय निवासियों को निकालकर बच्चों और स्त्रियों समेत लाइन में खड़ाकर गोलियों से छलनी कर देने वाले हाथ क्या इतने विवश और मजबूर हाथ हैं जो स्कूल नहीं बना सकते, अस्पताल नहीं बना सकते ?
क्या बंदूक चलाना सीखने से ज्यादा कठिन कार्य है ककहरा सीखना ? क्या बंदूक और गोली-बारूद जुटाने से भी कठिन कार्य है धान-गेहूँ जुटाना ? यह एक बेहूदा बात होगी, बेहद घटिया; लेकिन यदि वास्तव में आदिवासियों का विकास और उनके अधिकार ही समस्या का मूल हैं तो जिन बंदूकों से मतदान केन्द्र लूटे जाते हैं, सुरक्षा कर्मियों को मारा जाता है, जंगलराज चलाया जाता है उन्हीं के बल पर बूथों पर कब्जाकर, फर्जी मतदानकर अपने महान् नक्सली नेताओं को संसद और विधानसभा में पहुँचाना आसान काम है। मानवता का खून सडकों पर फैलाने से तो यह बेहतर ही होगा। देश के कई हिस्सों में होता है और हम मूक दर्शक की तरह देखते रहते हैं ।
मुझे टी.वी. पर आठ बरस के बालक (पता नहीं उसका चिंतन कितना समृद्ध है!) को बंदूक उठाये देखना उतना ही वीभत्स दृष्य लगता है जितना पांच बरस के बालक के हाथ में भीख का कटोरा देखना। सुना है, अब तो विदेशों से भी माओवादियों को हथियार सप्लाई हो रही है, वे कौन से संगठन हैं जो यहाँ मौत का सामान सप्लाई कर रहे हैं ? यदि वे पीडितों के पक्ष में हैं तो क्या उन्होंने उन गरीबों-अशिक्षितों के लिये बंदूक भेजने से पहले एक बार भी गेंहू, कपडा, किताबें या दवा भेजी हैं ?
एक प्रश्न यह है कि इन इलाकों में प्रचुर मात्रा में प्राकृतिक और खनिज सम्पदा है। सरकार इन खानों को पूंजीपतियों को आवंटित करती है, जंगलों से आदिवासियों को बेदखल करती है। सरकार के पास क्या विकल्प हो सकते हैं ? क्या सरकार खनन कार्य स्वयं करे? क्या आदिवासी पूंजीगत और तकनीकी रूप से खनन में समर्थ हैं ? क्या खनन कार्य किया ही नहीं जाये ? क्या सरकार की खनन सम्बन्धी, पर्यावरण सम्बन्धी और जंगल सम्बन्धी कोई नीति नहीं है ? क्या सरकार की नीतियों का डाक्यूमेंटेशन नहीं है और उसे प्राप्त करना पहुँच से बाहर है ? यदि सरकार की उक्त नीतियों में कोई खामी है, वह आदिवासी विरोधी है, पर्यावरण विरोधी है तो क्या उन्हें सुधारने के लोकतांत्रिक विकल्प अनुपलब्ध हैं ? क्या नक्सलवादियों के पास श्रम, खनन, जंगल, जमीन, विकास, और पूंजी सम्बन्धी कोई वैकल्पिक नीति कागज पर तैयार है? सिवाय अधिकार जमाने और लूट के !? क्या खान आवंटन और बडे-उद्योग धंधों से सरकार को कोई आय नहीं होती है ? क्या उक्त आय राष्ट्रीय कोष में जमा नहीं होती है ? क्या इन सम्पदाओं पर क्षेत्रीय कर, क्षेत्रिय संस्थाओं को प्राप्त नहीं होते हैं ? यदि उक्त इलाकों में स्कूल, अस्पताल, बैंक, डाकघर, सड़क, पुल आदि अपर्याप्त मात्रा में हैं, माना कि ऊंट के मुंह में जीरे के समान हैं, तो क्या जितने हैं उनको भी नष्ट करने से कोई विकल्प तैयार होता है ? क्या क्षेत्रीय खनन सम्पदा पर केवल उसी क्षेत्र का अधिकार है बाकी देश की उसमें हिस्सेदारी नहीं होनी चाहिये ? क्या देश के किसी अन्य हिस्से में इससे इतर खनन कानून अमल में लाये जाते हैं ? जमीन से पांच फीट निचे मिले एक चांदी के सिक्के पर भी शायद देश के किसी हिस्से में किसी स्थानीय व्यक्ति या संस्था का व्यक्तिगत अधिकार नहीं है। बाल ठाकरे और राज ठाकरे की महाराष्ट्र नीति से यह किस तरह अलग है ?
वास्तविक मुद्धा भ्रष्टाचार है, जिससे देश में कौन-सा इलाका अछूता है ? देश के किस इलाके का आम आदमी सरकार से पूर्णतः संतुष्ट है ? मुझे लगता है इनमें से किसी भी प्रश्न के उत्तर में हिंसा फिट नहीं होती है। भावुकता पूर्ण कहानियाँ गढ़कर भी इस देश की मेधा व्यक्तिगत प्रतिकार में हिंसा और एक भावावेश में की गई हिंसा का ही औचित्य ठहरा सकती है, किसी योजनाबद्ध, संगठित और राजनीतिक हिंसा का भारत में आज दिनांक में कोई औचित्य नहीं है। क्या नक्सलवादी अपनी असंतुष्टि के बिन्दुओं को इस देश के आदमी के सामने लिखित रूप में सार्वजनिक नहीं कर सकते, हिंसा छोड़ने और लोकतंत्र में विश्वास पैदा करने के लिये सरकार से अपनी अपेक्षाओं, अपने अधिकारों का कोई अधिकतम या न्यूनतम मांगपत्र सार्वजनिक नहीं कर सकते ? क्या वे सरकार के साथ बातचीत के लिये एक टेबल पर नहीं आ सकते (जबकी सरकार जम्मू-कश्मीर जैसे अलगाववादी इलाके में भी लोकतंत्र बहाल कर सकती है) ?

सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या माओवादियों और नक्सलवादियों की लोकतंत्र में आस्था भी है? वे लोकतंत्र से अधिकतम ऐसा क्या चाहते हैं कि उसके बाद हिंसा छोड़ सकते हैं ? नक्सलवादी नहीं तो क्या उनके प्रवक्ता उस बिन्दु को तय कर सकते हैं (अवसरानुकूल करुण कहानियाँ गढ़ने के अतिरिक्त) ? यदि भारत सरकार उनकी दुश्मन है और विदेशों में हमदर्द बैठे हैं तो इसे हिंसा को दिया जाने वाला उचित नाम क्या है ?

मैं कदम-कदम पर भुगतता हूँ कि भारत में लोकतांत्रिक और विकास संबंधी नीतियों में हजारों-हजार खामियाँ हैं। यहाँ की प्रशासनिक व्यवस्था अत्यन्त लचर है जिसमें भ्रष्टाचार की पराकाष्ठा है। भारत की 90 प्रतिशत जनता असंतुष्ट है ? कौनसा हिस्सा अछूता है ? लेकिन बंदूक उठाने जैसे हालात मैं भारत में कहीं भी नहीं पाता हूँ। गरीबों को छोडिये देखने में भले-चंगे और खाते-पीते लोगों के दिलों पर हाथ रखकर देखिये वे भी असंतुष्ट हैं उनकी भी पीड़ाओं का अन्त नहीं है । लेकिन माओवादी विचारधार और नक्सलवादी प्रवक्ताओं को बहुत कठिनाई पेश आयेगी यदि अपनी असंतुष्टी के आधार पर प्रत्येक पीडित भारतीय बंदूक उठा लेगा । महात्मागाँधी जब हिंसा के छींटों से व्यथित होकर अपना आन्दोलन वापस ले लेते हैं और इंतजार करने का सब्र अपने में पैदा करते हैं तो वे एक संदेश देते हैं उस संदेश को समझना चाहिये।
एक अत्यन्त महान् चलन आजकल नक्सल प्रवक्ता बुद्धिजीवियों में चल पड़ा है, वे विशाल-हृदय होकर कहते हैं कि दोनों ही और से आम आदमी मारा जा रहा है (अर्थात मानवतावादी होते हुए हिंसा का औचित्य ठहराना वास्तव में मुश्किल है, बहुत)। तो किस खास आदमी को मारना उचित होगा !? प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, उद्योगपति, मुख्यमंत्री, खाते-पीते संतुष्ट लोगों को, अमीरों को ! किसको ? एक-एक व्यक्ति की पहचान करके मारा जाये या इनको समूह में (लाइन में खड़ा करके) मारा जाये ? यदि केवल 10 प्रतिशत और मुझे तो लगता केवल 5 प्रतिशत लोग ही भारत में कर्ता-धर्ता हैं, हर निर्णय के लिये केवल इतने ही लोग जिम्मेदार हैं। बाकी 90-95 प्रतिशत जनता में अधिकतम 30 प्रतिशत जनता ऐसी हो सकती है जो सुविधापूर्ण जी रही है, आम आदमी के अधिकारों को मार रही है, यह 30 प्रतिशत भी मतदान में कम ही हिस्सा लेता है। शेष 60 प्रतिशत में हो सकता है 30 प्रतिशत को नक्सलवादी पीड़ा न समझाई जा सके, लेकिन 30 प्रतिशत को जागरुक किया ही जा सकता है । इस 30 प्रतिशत के माध्यम से उन 5-10 प्रतिशत को हर पांच साल में बदलने का अवसर है जो निर्णय लेते हैं, क्या यह कार्य अबोध बच्चों, महिलाओं, अशिक्षितों के हाथ में बंदूक देने और विमानभेदी रण-कौशल का प्रशिक्षण देने से भी अधिक कठिन काम है ?
मेरी आशंकायें फिर वही हैं कि माओवादियों की वास्तविक पीड़ा क्या है ? लोकतंत्र में उनकी आस्था है भी या नहीं ? यदि लोकतंत्र में आस्था नहीं है तो कोई विकास, कोई बातचीत, कोई नीति उन्हें हथियार डालने को सहमत नहीं कर सकती है। माओवाद के पक्ष में राजनेताओं की कमी नहीं है, मुख्यमंत्रियों, सांसदों, विधायकों की पर्याप्त सहानुभूति नक्सलवाद के प्रति जाहिर और प्रमाणित है। फिर यह कहना कि आदिवासी उपेक्षित हैं इसलिये हथियारबंद है मानवता के साथ भद्दा मज़ाक है। उन निकृष्ट राजनीतिज्ञों ने सत्ता में रहते हुए और सत्ता के बाहर क्या कभी कोई लोकतांत्रिक कदम आदिवासियों के हक़ में उठाया है, हथियार की राजनीति को छोड़ने का मन बनाया है ? माओवादियों के सहयोग से हथियारों के दम पर वर्चस्ववादी राजनीति और हफ्तावसूली में हिस्सेदारी लेने वाले या उनकी बंदूकों के डर से सत्य से मुंह फेर लेने और चन्दा देने वाले राजनीतिज्ञ ही आदिवासियों के असली दुश्मन हैं, लेकिन मारना तो उनको भी नहीं चाहिये।
दूसरे अतिवादी जो कहते हैं कि माओवादियों से युद्ध छेड़ कर उनको खत्म कर देना चाहिये। वे भ्रम में हैं। जिन बच्चों ने कभी ककहरा नहीं सीखा, जिन्हें सम्मोहित कर बंदूक थमा दी गई उन्हें बचाने की इस देश को जरूरत है। यह काम बिना युद्ध के भी दृढ़ इच्छाशक्ति से किया जा सकता है। अपनापक्ष उज्ज्वल करना होगा। माओवाद के स्रोतों को सुखाकर, देश के गद्दारों के मुखौटे नोचने होंगे। भारत एक बड़ा और समृद्ध राष्ट्र है वह न्यूनतम हिंसा से भी इस समस्या से पार पा सकता है यदि वोटों की राजनीति से फुर्सत पा जाये।
(शेष अगली किस्त में)

Wednesday, April 14, 2010

ग़ज़ल

पहलू में आ बैठी है क़यामतों की रात
सोची बहुत है तुमने सभासदों की बात

जब आ गई दिलों में बग़ावतों की बात
तरक़ीब से होने लगी ख़ुशामदों की बात

आख़िरी चीख़ें तो कोई सुन नहीं सका
अब जो याद आती हैं हताहतों की बात !

ग़ल्तियाँ हो जाती हैं कुछ सोचकर कहो
करते नहीं हैं इस तरह ज़लालतों की बात

वाजिब-से हो चले हैं ख़यानतों के खेल
दर-दर भटक रही है अमानतों की बात

रातों पे हो रहे थे जब रोशनी के ज़ुल्म
नानी सुना रही थी तब रहमतों की बात

Wednesday, March 31, 2010

मगरमच्छ

मगरमच्छ एक बडे-से गड्डे में, गंदे-से पानी में पड़ा रहता था। कुछ नहीं मिलता था उसे खाने को। जंगल में छाड.-छंखाडों और कंकरीले मैदानों के बीच गड्डे के बदबूदार पानी पर जमी थी काई। काई – मिट्टी, मेंडक और छोटे-मोटे कीडों से नहीं बुझती थी मगर की भूख। पक्षी उसके हाथ न आते थे। मगर का सपना था मनुष्य-भक्षण। पर क्या करे! समृद्धि के शहर को जाने वाला रास्ता मगर के तथाकथित तालाब से परे-परे लांगकट में चला जाता था। मनुष्य भूले से भी न फटकता था तालाब के आसपास । वह न तालाब में गिरता न मगर के पेट में समाता। सपने और भूख से तपड़ता मगर कृशकाय हुआ जाता था और शक्ति क्षीण होती जा रही थी। एक दिन मगर निकला और शहर के रास्ते पर पहुँचा। खुले मैदान में मनुष्य को गटकना उसके लिये संभव तो नहीं हुआ लेकिन उसने मनुष्य की दो मज़बूरियों का पता कर लिया। एक तो समृद्धि के शहर का रास्ता अनावश्यक घुमावदार था जिसमें मनुष्यों को ज्यादा चलना पड़ता था, उन्हें थकान होती थी। यदि यही रास्ता ऐन तलाब के उपर से सीधे निकाल दिया जाता तो मुनुष्यों के लिये शहर का रास्ता छोटा हो सकता था। मनुष्य जरूर इस कदम का स्वागत करते। दूसरे, शहर का रास्ता बहुत ऊबड़-खाबड़ और कठिन था उस पर चलना मनुष्यों के लिये बहुत कष्टमय था। यदि रास्ता तालाब के उपर से निकाल कर उस पर सुंदर सड़क बनवा दी जाती, रास्ते के दोनों ओर अच्छे छायादार पेड़ –पौधे लगा दिये जाते, जगह- जगह जलपान की व्यवस्था करदी जाती तो मनुष्य खिंचे चले आते तालाब की ओर। बस फिर क्या था। मगर पूरे उत्साह से लग गया मिशन में, मनुष्यों के कष्ट देख हमेशा उसकी आँखों से आंसू टपकते रहते। उसने ऐन तालाब के ऊपर से समृद्धि के शहर का रास्ता खींच दिया, यह शहर के लिये शार्टकट रास्ता था। उसने रास्ते पर अच्छी चमचमाती सड़क बनवाई, रास्ते के दोनों और खुशबू दार पौधे, छायादार वृक्ष लगा दिये। जगह-जगह स्वागत संदेश और शुभयात्रा की कामनाओं के साथ-साथ गड्डे के दोनों ओर रास्ते पर दो बड़े-बड़े सूचना पट्ट भी लगा दिये – “सावधान ! आगे एक गहरा गड्डा है कृपया बचकर चलें।“
मनुष्य खुश थे, उनमें मगर की महानता और मनुष्य-प्रियता के चर्चे बडे़ जोर-शोर से फैले। वे दौडे हुए जाते शहर की ओर और गड्डे से सावधानी से बचकर निकलते । क्यूँ कि सड़क बहुत बढ़िया थी वहाँ पहुंचकर मुनुष्य का अपने आप दौड़ने का मन करने लगता और उनमें बहुत से अपनी गति में सावधानी के बोर्ड पर नज़र ही नहीं डाल पाते, बहुतों को बोर्ड पर लगी सावधानी का भरोसा नहीं होता वे सोचते आखिर इतनी बढ़िया सड़क पर मगर गड़्डा छोडेगा ही क्यूँ, उन्हें यह बोर्ड किसी शरारती की करतूत लगता। लिहाजा काफी सारे मनुष्य गड्डे में गिरने लगे। भीतर बैठा मगर अब खुश था, मजे से मनुष्य को खाता, फिर चेहरे पर दुःख ओढ़, आँखों से आँसू बहाता गड्‍डे से बाहर निकल मनुष्य के गड्‍डे में गिर जाने पर दुःख प्रगट करता। साथ ही मनुष्य के घरवालों के लिये कुछ सहायता राशि की घोषणा भी करता, जो वह मनुष्यों से ही अच्छे रोड़ की एवज में टैक्स के रूप में वसूलता था। सारे मनुष्य मगर की महानता के गुण गाते और गड़डे में गिरने वाले मनुष्य को लापरवाह ठहराते, कि आखिर उसने मगर महोदय के लगाये हुए बोर्ड की अवहेलना क्यूँ की। जब बहुत ज्यादा मनुष्य गड्डे में गिरने लगे तो बावजूद गड्‍डे के पार उतरे मनुष्यों की दलीलों के मनुष्यों में यह आवाज उठने लगी कि मगर साहब गड्डे को भरवायें। मगर साहब ने इस दलील का पूरा सम्मान किया और इस पर अपनी चिंता से भी लोगों को अवगत कराया कि वे कब से इस गड्‍डे को भरवाने की योजना बना रहे हैं , वे तो अपने निवास की भी परवाह नहीं करते जो इसी गड्डे में है, वे जंगल में प्यास से तड़प-तड़प कर मर जाना स्वीकार करेंगें, यदि ये गड्डा भर सके। लेकिन क्या करें ! गड्डे के नीचे ऐसा दलदल है कि इसे किसी भी तरह भरा जाना संभव नहीं है। उन्होंने विशेषज्ञों की रिपार्ट निकालकर मनुष्यों को दिखाई। उन्होंने बताया कि हमने तो एकबार इस गड्डे को उपर से ढकवा दिया था लेकिन इसके बावजूद मनुष्य इसमें गिरते रहे तो हमने इसे वापस उघाड़ दिया कि आखिर मनुष्य देख कर तो नहीं गिरेंगे। अलबत्ता उन्होंने एक सुझाव मनुष्यों को अपनी ओर से दिया की वे इस राह पर चलने के लिये मनुष्यों के लिये प्रशिक्षण केन्द्र खोलेंगे। जिनमें मनुष्यों को गड्‍डे से बचकर निकलने का सैंद्धातिक और व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जायेगा। मनुष्य इस प्रस्ताव से आह्लादित हो गये और अपने आप पर शर्मिंदा भी कि आखिर उन्होंने इतने अच्छे मगर साहब के निवास की भी परवाह नहीं की। अबकी बार एकाएक गड्डे में गिरने वालों की संख्या में भारी कमी हो गयी। मगर साहब वैसे खुद ही जानते थे कि उनपर क्या बीती! लेकिन उन्होंने फिर भी मनुष्यों को बधाई संदेश भिजवाया। बदले में मनुष्यों ने मगर साहब के लिये धन्यवाद संदेश भिजवाया और साथ में अपनी भूल का माफीनामा भी कि उन खुदगर्जों को धन्यवाद देने की भी याद नहीं रही जबकि मगर साहब उन्हें सही समय पर बधाई देने पहुँच गये। इससे यह भी साबित होता था कि मगर साहब हमेशा मनुष्यों के विषय में ही सोचते रहते हैं, दूसरी तरह से वे सोचते तो थे ही इसलिये उन्हें मनुष्यों का सब हाल मालूम रहता था। इसके तुरंत बाद मगर साहब ने एक और उपकार मनुष्यों पर किया उन्होंने प्रशिक्षण केन्द्रों में भारी तादात में मनुष्यों को ही प्रशिक्षक के रूप में नियुक्त कर दिया. साथ ही प्रशिक्षण को इस बहाने थोड़ा कड़ा कर दिया कि अभी भी कुछ मनुष्य गड्डे में गिर ही जाते हैं। दूसरा उन्होंने मनुष्यों को राजमार्ग पर उनके मन मुताबिक व्यवसाय करने के लिये दुकाने आवंटित करना भी शुरू कर दिया। चूँकि सुरक्षित राजमार्ग पर आवाजाही बढ़ गई थी और हर समय चहल-पहल रहती थी तो व्यापार के अवसर भी पैदा हो गये थे। फलतः मनुष्य टूट पडे और काफी सारी दुकानें राजमार्ग के दोनों ओर खुल गईं। वहाँ मनुष्य ही विक्रेता और मनुष्य ही खरीददार थे। थोडे ही दिन बाद मगर साहब ने राजमार्ग पर मदिरा की दुकाने खोलने के लिये आवेदन माँगे, जिसकी जरूरत व्यापारी और यात्री दोनों प्रकार के मनुष्य काफी दिनों से महसूस कर रहे थे। मनुष्यों के बाकायदा काफी संख्या में माँगपत्र मगर साहब के पास पहुँचे थे जिनपर मगर साहब ने काफी विलम्ब से और नाखुशी के साथ सिर्फ मनुष्यों की भावना के कारण ही यह निर्णय लिया था।
उधर कडे प्रशिक्षण के कारण मनुष्य प्रशिक्षकों के पास रिश्वत के ऑफर आने लगे और मनुष्य मगर साहब की पीठ पर चोरी-छुपे फर्जी लाईसैंसे बेचने लगे। इसका मिलाजुला प्रभाव यह हुआ कि गड्डे में अब खूब मनुष्य गिरने लगे। हाय-तोबा तो होती थी, प्रशिक्षण पर और शराब की दुकानों पर उंगली भी उठती थी लेकिन मगर साहब से पहले ही काफी संख्या में मनुष्य ही इन बातों के विरोध में आ जाते थे, उनका तर्क था मगर साहब जो कर सकते थे सब कर चुके हैं, मनुष्य स्वयं ही अपनी गलती से गड्डे में गिरते हैं। मगर इस तर्क को सुनकर मन ही मन खुश होता था लेकिन कहता यही था कि इन लोगों की पीड़ा को भी समझा जाना चाहिये। मनुष्यों की रोज़-रोज़ की लडाई से तंग आकर मगर साहब ने दोनों पक्षों के बराबर सदस्य चुनकर एक कमेटी बना दी । कमेटी के निर्णय के अनुसार ही राजधानी समृद्धि नगर को जाने वाले राजमार्ग के गड्डे और उससे जुडी तमाम बातों पर कोई कार्य-योजना बनाई जायेगी। जो भी होगा सर्व-सम्मति से होगा और उसमें मगर साहब का कोई हस्तक्षेप भी नहीं होगा। तब तक राजमार्ग पर आवागमन सुचारु रखने के लिये मगर साहब दृढ़-प्रतिज्ञ हैं। वे अपने तालाब में बैठे सर्वसम्मत निर्णय की प्रतीक्षा कर रहे हैं।

Monday, March 29, 2010

पंछी रे! मुझको भी सिखादे

डाल से डाल, यहाँ से वहाँ
खेत से खलिहान, गाँव से गाँव
जंगल से जंगल तक,
तिनके की खोज
चुनना घास के बीज
वो गर्मी से हांफते दिन और बूंद की तलाश
धूल में करना संध्या स्नान
सर्द प्रभात की धूप में
अकड़ना, झगड़ना, करतब से करना
साथी की अपने गर्दन कुचरना
उछलना, फुदकना, लडना, झगड़ना
ध्यान-सा लगाकर
सेंकना पंख
पंछी रे! मुझको भी सिखादे

खाना उनके दाने सदाशय होकर
देना प्रारब्ध का फल
बच्चों से करना बहाना निज तृप्ति का
मुंह से उगल बचाना उन्हें भूख से

मन की सीमा लांघ
मोह भुला धरती का
उन्मुक्त हो उड़ना गगन में
प्रकृति के दिल में उतरना
खींचना कारवांवृत्त रेखा
टूटकर पंक्ति से फिर-फिर जुड़ना

गुजारना रात कभी साख पर
और मौसम-मौसम करना
फिर-फिर नीड़ का निर्माण
पंछी रे! मुझको भी सिखादे

शुभ सूचक कलरव संगीत
और कुछ गीत सुमंगल के
झूलकर शिरा पर गाना प्रभाती
फिर काम पर जाना अकेले, बेठिकाने
भीड़ में घुलमिल भी जाना
रखवाले की आँख के आगे
खेत से दाना चुराकर
उसके बच्चों को लुभाकर
सांझ को घर लौट आना
पंछी रे! मुझको भी सिखादे

Friday, March 26, 2010

चिड़िया, (गौरैया)

( आज पुनः पढ़िये "चिडिया" कुछ ग़ज़लों के साथ यह कविता अपने ब्लॉग पर मेरी पहली पोस्ट थी। आज पुनः लगा रहा हूँ क्यूँकि "बना रहे बनारस " ब्लाग से फुदक कर गौरैया ने फिर मेरे दिमाग में घोंसला बना लिया है)

चिड़िया
उठा लाई तिनका, चिड़िया
घर बनाएगी वह मेरे घर में
कोई भी नहीं देख पाता है अपने घर में दूसरा घर
मैं भी उठाकर फैंक दूँगा चिड़िया के सारे तिनके
चिड़िया चहकेगी! फिर उठा लाएगी ढेर-सारे तिनके
बनाकर ही मानेगी वह मेरे घर में घर
और मैं उठा-उठाकर फैंकता रहूँगा घरों पर घर
फिर चिड़िया वहाँ बनाएगी घर
जहाँ मेरे ही घर में नहीं पहुँचती मेरी नज़र
लेकिन मैं देख लूँगा एक दिन अपने घर में दूसरा घर
आखिर मेरा अपना है घर
उठाकर ले जाऊँगा घोंसला अंड़ों समेत
फैंकने पर फूट सकते हैं अंड़े
मैं ये पाप नहीं करूँगा
दूर रख आऊँगा घोंसला अंड़ों समेत
मैं नहीं समझूँगा चिड़िया की भाषा में-
कि घरों को भी होती है एक अदद छत की ज़रूरत
वे नहीं छोड़े जा सकते खुले आसमान में
फिर पनपते ही हैं सब घरों में घर
सबके घर तोड़ने वाले भी होते हैं;
अंड़े फूट भी जाते हैं और किसी को भी नहीं लगता उनका पाप
ऐसी बहुत-सी बातें
कि मेरा घर भी है किसी के घर में घर
कि इतने घरों में भी क्यूं नहीं मिलता घर में घर
मैं कभी नहीं समझूँगा चिड़िया की भाषा में
चिड़िया चाहे कितना ही चहके।।।

Wednesday, March 24, 2010

ग़ज़ल

दूर बहुत जाना है तुझको, पंछी तू परवाज़ लगा
साहस भीतर छुपा हुआ है, मन ही मन आवाज़ लगा

आवाज़ों को ढूँढ़ रहा तू, बढ़ जायेगा सन्नाटा
इसी सूनी बस्ती में ऊँची मत कोई आवाज़ लगा

आशाएँ सब टूट जाएँगी बिखरेंगे विश्वास सभी
नाम किसी का लेकर मत ललकार भरी आवाज़ लगा

गीदड़ शेर हुये जाते हैं, हमें अकेला देख यहाँ
एक खेल करते हैं हम, चल आपस में आवाज़ लगा

वादे बहुत किए हैं इसने, बहुत बहाने कर लेगा
मौक़ा मत दे, परख अभी, तत्काल इसे आवाज़ लगा

सुनकर शोर चौंक जाता हूँ और भड़क जाते हैं वो
पढ़ा-लिखा है, समझदार है, धीरे-से आवाज़ लगा

Saturday, March 20, 2010

ग़ज़ल

कहता रहा हूँ आजतक, ‘बेरोज़गार हूँ’
करता रहा हूँ ज़ुल्म, मैं सितमगार हूँ

रोने से मिल जाती है मेरे पेट को ठंड़क
भूखा नहीं हूँ आजकल बारोज़गार हूँ

इज़्ज़त से होता हूँ बरी हरएक दफ़्तर से
देखिए तो! मैं भी कैसा गुनहगार हूँ

चिथ के मर गया हूँ, लाइन में हूँ मगर
पहले से ही मैं बहुत ख़बरदार हूँ

करता फिरूँ हूँ दर-ब-दर तीरथ-सा एक मैं
पापियों में मैं बड़ा ही होशियार हूँ

जानता हूँ आपकी मज़बूरियों को मैं
आपसे ये अर्ज़ करके शर्मसार हूँ

छोड़ दीजिये मुझे फुंफकार से डराना
ज़हर भी बाँटोगे तो उम्मीदवार हूँ

जब से सुना है मेरी ख़ातिर परेशान हो
तुमसे मिलने का भी तो तलबगार हूँ

‘वाह-वाह’ करते हैं सुनकर सफ़र का हाल
ख़ाके-राह हूँ, कि मैं ग़ज़लगार हूँ

Wednesday, March 17, 2010

भारत में धर्मनिरपेक्षता और उसकी लाक्षणिकता

मेरा विषय धर्मनिरपेक्षता का विवेचन या उसके संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या करना नहीं है। मेरा विषय तो भारत में धर्मनिरपेक्षता के बिगडैल स्वभाव, उसके संकुचित दृष्णिकोण और धर्मनिरपेक्षता की गलत व्याख्याओं से परिचय कराना ही है। इसी प्रयास में थोड़ा संविधान की भावना के अनुसार धर्मनिरपेक्षता के स्वरूप की चर्चा यहाँ की जा रही है। धर्मनिरपेक्षता की राजनीति की चर्चा मैं यहाँ भूलकर भी नहीं करने जा रहा। भारत का तथाकथित सैक्यूलर धर्मनिरपेक्षता के मुद्दों पर कब मौन रहेगा, कब मुखर होगा, कब कटु, कब हिंसक, कब औपचारिक प्रतिक्रिया देगा, किस मुद्दे को धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा बना देगा और किस को इसकी परिभाषा में नहीं मानेगा !! यह विषय यहाँ नहीं लिया जा रहा है।

भारत से बाहर धर्मनिरपेक्षता का आशय उस अर्थ से सर्वथा भिन्न् है जिस अर्थ में और जिस भावना के साथ भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता को ग्रहण किया गया है। पश्चिमी देशों में धर्मनिरपेक्षता के लक्षणों में आधुनिकता, ज्ञान-विज्ञान एवं सामाजिक क्रांतिकारिता अनिवार्य हैं। जबकि भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता धार्मिक भेदभाव व धार्मिक-साम्प्रदायिक टकराव के निषेध तक सीमित है। पश्चिमी देशों में धर्मनिरपेक्षता जहाँ व्यक्ति पर लागू होती है वहीं भारत में धर्मनिरपेक्षता मूलतः राष्ट्र की विशेषता है, यह वक्तियों पर केवल उसी  हद तक लागू होती है जहाँ तक वह राष्ट्रीय धर्मनिरपेक्ष भावना से बराबरी के स्तर तक आ जाये। इससे आगे की यात्रा में वह प्रगतिशीलता कहलायेगी।

भारत संवैधानिक रूप से एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। हालांकि संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्ष शब्द एक संशोधन द्वारा दर्ज किया गया है लेकिन भारत एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र होगा यह 1947 से ही सुनिश्चित था जब धार्मिक आधार पर भारत का विभाजन होकर पाकिस्तान का निर्माण हो चुका था जो कि एक मुस्लिम राष्ट्र बना। इसी आधार पर कुछ लोगों द्वारा भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित किये जाने की माँग उठी जिसे तत्समय ही अमान्य करार दे दिया गया था। इसलिये भारत के धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होने में किसी प्रकार के संशय की या वैचारिक भिन्नता की गुंजाइश नहीं है, न कभी रही है।

संविधान में धर्मनिरपेक्षता के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। संविधान के अनुसार भारत का कोई राष्ट्रीय धर्म नहीं होगा। वह सभी धर्मों के साथ समान सम्मान का व्यवहार करेगा। हालांकि भारत का राष्ट्रीय धर्म कोई नहीं होगा लेकिन वह अपने नागरिकों को यह महत्त्वपूर्ण अधिकार व स्वतंत्रता प्रदान करता है कि वे किसी भी धर्म में आस्था रख सकते हैं, अपने धार्मिक रीति-रिवाजों के अनुसार पूजा-पाठ कर सकते हैं तथा अपने धर्म का प्रचार-प्रसार करते हैं। भारत के प्रत्येक नागरिक को धार्मिकता का संवैधानिक अधिकार एवं स्वतंत्रता है। लेकिन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण यह है कि भारत का कोई राष्ट्रीय धर्म नहीं होगा अतः सरकारों का चरित्र पूर्णतया धर्मनिरपेक्ष होगा। वे प्रत्येक धर्म के साथ समान व्यवहार करेंगी। अतः पक्षपातहीन धार्मिक सम्मान का व्यवहार ही भारत के संदर्भ में धर्मनिपेक्षता का वास्तविक चरित्र है। संविधान भारत के नागरिकों से यह अपेक्षा भी करता है कि वे धर्मनिरपेक्षता की भावना के साथ अपने धर्म के समान ही अन्य धर्मों का आदर करेंगे तथा किसी प्रकार का धार्मिक टकराव पैदा नहीं करेंगे। अतः एक भारतीय नागरिक अपनी धार्मिक आस्थायें सखते हुये भी संविधान की भावना के अनुसार पूर्णतः धर्मनिरपेक्ष हो सकता है।

प्रश्न उठता है कि क्या संविधान भारतीय नागरिक को नास्तिक होने की स्वतंत्रता का अधिकार देता है? हाँ देता है, संविधान धार्मिक आस्था रखने की स्वतंत्रता देता है न कि बाध्यता। दूसरा प्रश्न, यह भी उठता है कि क्या संविधान धर्म की निंदा करने की स्वतंत्रता देता है? नहीं, भारतीय संविधान अपने धर्मनिरपेक्ष स्वरूप में तो धर्म की निंदा का अधिकार अपने नागरिकों को नहीं देता है। संविधान की भावना के अनुसार सभी धर्मों से समान व्यवहार का आशय आदर का व्यवहार करना है। तीसरा प्रश्न उठता है कि क्या भारत में धर्म की निंदा की ही नहीं जा सकती क्या वह धर्मनिरपेक्षता की भावना के अनुकूल होगी ? यहाँ यह महत्त्वपूर्ण है कि अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार के तहत् भारत में धर्म की तर्क संगत निंदा की जा सकती है। यहाँ तक कि किसी धर्म के पूजा-पाठ या कर्म-काण्ड पद्धति लोक स्वास्थ्य या सदाचार के विरुद्ध है तो राष्ट्र हस्तक्षेप भी कर सकता है, अर्थात उसे प्रतिबंधित भी कर सकता है। एक प्रश्न यह उठता है कि क्या राष्ट्र धर्म को किसी प्रकार की सहायता भी कर सकता है ? हां, संविधान में स्पष्ट प्रावधान है कि राष्ट्र अल्पसंख्यक धर्मों को उनके शिक्षण संस्थान चलाने के अधिकार के साथ उन्हें सहायता भी मुहैया कराता है। संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 तक में अन्तःकरण की और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता प्रदान की गई है। यही नहीं, अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों के लिए अनुच्छेद 29 में उपबन्ध किया गया है कि राज्य उन पर सम्प्रदाय की अपनी संस्कृति से भिन्न कोई संस्कृति अधिरोपित नहीं करेगा तो अनुच्छेद 30 प्रतिपादित करता है कि अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों को अपनी रूचि की शिक्षा-संस्थाओं की स्थापना व प्रशासन का अधिकार होगा और राज्य ऐसी शिक्षा संस्थाओं को सहायता देने में अल्पसंख्यक वर्ग की शिक्षा संस्थाओं के विरूद्ध इस आधार पर विभेद नहीं करेगा कि वह किसी धार्मिक समुदाय के प्रबन्ध में हैं। अतः स्पष्ट है कि किसी भी रूप में भारतीय धर्मनिरपेक्षता या तटस्थता नकारात्मक नहीं वरन् सकारात्मक है। धर्मनिरपेक्षता के अर्थों में संविधान का अनुच्छेद 15 धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर किसी भी प्रकार के विभेद का निषेध करता है। इस प्रकार भारतीय धर्मनिरपेक्षता अपने संवैधानिक रूप से सकारात्मक रूप में सर्वधर्मसमभाव का ही दूसरा नाम है। वह  सहिष्णुता, शांति, अहिंसा, सामंजस्य व समन्वय, निरन्तरता एवं विकास का सम्मिलित रूप है।
     
तब! धर्मनिरपेक्षता के प्रावधानों और संविधान की भावना के अनुसार भारत में क्या किसी धर्म या किसी खास धर्म का अपमान किया जा सकता है, तब क्या वह धर्मनिरपेक्षता की भावना के अनुकूल होगा? नहीं, भारतीय संविधान किसी भी रूप में धर्म के अपमान की इजाजत नहीं देता। क्या भारतीय संविधान के अनुसार नास्तिक होना ही धर्मनिरपेक्षता का अनिवार्य लक्षण है ? नहीं, धर्मनिरपेक्षता धार्मिकता का निषेध नहीं करती है, बल्की धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा धर्म के अस्तित्व के साथ ही जुड़ी है। क्या भारतीय संविधान धर्मनिरपेक्षता की कसौटी पर नास्तिकता को धर्म की तुलना में अधिक महत्त्व देता है? नहीं, भारतीय संविधान नास्तिकता और धर्म में भी कोई भेद नहीं करता है।

उक्त मानकों के आधार पर देखें तो आज देश में धर्मनिरपेक्षता का वास्तविक स्वरूप संविधान की मूल भावना के अनुरूप नहीं है। देश का प्रबुद्ध बुद्धिजीवी वर्ग एक प्रतीकात्मक धर्मनिरपेक्षता का वरण करता है, और उसी की काँव-काँव कर स्वधन्य होता है। भारत में तथाकथित धर्मनिरपेक्ष वर्ग के द्वारा रचा गया सेक्यूलर संसार धर्मनिरपेक्षता के कुछ प्रतीक रचकर उनको इतना मजबूत और विशालकाय बना चुका है कि उसे खुद भारतीय संविधान की मूल भावना का साक्षात्कार असंभव हो गया है। भारतीय सेक्यूलर की आँख कुछेक प्रतीकों से इतनी आच्छादित हो चुकी है कि उसमें धर्मनिरपेक्षता के सूक्ष्म बिम्म समाहित होने के लिये जगह ही नहीं है। भारत में आज कोई भी वक्ति इन खास-खास प्रतीकों को छूकर ही खुद को धर्मनिरपेक्षता पुतला महसूस कर सकता है।

व्यवहार में पायी जाने वाली भारतीय धर्मनिरपेक्षता, जिसका जिक्र और बोलबाला हमारे समाचार पत्रों, बुद्धिजीवियों की गोष्ठियों और साहित्य में पाया जाता है, के रचना संसार के मुख्य स्थापित प्रतीक इस तरह हैं-
  1. नास्तिकताः भारतीय सेक्यूलर वर्ग ने नास्तिकता को धर्मनिरपेक्षता का पर्याय की तरह महिमामण्डित कर दिया है, अब कोई धार्मिक आस्थावाला व्यक्ति सेक्यूलर नहीं कहला सकता है। बल्कि धर्म को मानने वाला प्रगतिशील भी सेक्यूलर जमात में अपने को संकुचित महसूस करता है।
  2. कोई व्यक्ति और कुछ करे या न करे यदि वह नास्तिक है तो बहुसंख्यक समुदाय के धर्म की व्यक्तिगत तथा सभी धर्मों की वायवीय अंध आलोचना, निंदा और अपमान कर वह धर्मनिरपेक्ष कहला सकता है।
  3. अल्पसंख्यक समुदाय का अंध समर्थन सेक्यूलरिज्म का प्रतीक है। इसमें उनके धर्म, रीति-रिवाज, प्रगति विरोधी विचार, कर्मकाण्ड यहाँ तक कि बहुसंख्यक धर्म के विरुद्ध उनके अभियान, उनकी दुर्भावना तक का पुरजोर और सक्रीय समर्थन भी शामिल है।
  4. यदि कोई मुंहभर अपशब्दों के मालिक है, उसकी भाषा में पर्याप्त हिंसा है तो वह अपनी इस दौलत को धर्म पर, धार्मिक लोगों पर, धार्मिक प्रतीकों पर खर्च कर विशुद्ध धर्मनिरपेक्ष कहला सकता है।
  5. एक तरफ परंपरागत ज्ञान का व्यवहार करने वाला कोई व्यक्ति धर्मनिरपेक्ष नहीं कहला सकता तो दूसरी और किसी भी प्रगतिशील विचार से अछूता व्यक्ति धर्म के प्रति अपने बैर के कारण ही प्रमाणित धर्मनिरपेक्ष बन सकता है।
  6. किसी भी प्रकार की मूर्खता, दुर्भावना या अपराध यदि किसी प्रकार से धर्म के विरुद्ध ठहरता है तो उसका पुरजोर समर्थन भी धर्मनिरपेक्षता का अनिवार्य लक्षण बनता जा रहा है।
इस प्रकार भारत के संदर्भ में कोई भी व्यक्ति उक्त प्रतीकों या किसी एक प्रतीक को भी छूकर वह धर्मनिरपेक्ष होने का स्वांग बहुत कुशलता से भर सकता है, सेक्यूलर समाज में अपना अभिनन्दन सुनिश्चित कर सकता है। संविधान की भावना के विपरीत उसका आधा-अधूरा कुपाठ ग्रहण भारतीय सेक्यूलर ऐसा करते हुए 50 प्रतिशत मौकों पर सही हो सकता है तब शायद वह संविधान की भावना के अनुरूप धर्मनिरपेक्ष  आचरण कर रहा हो लेकिन 50 प्रतिशत मौकों पर वह अनिवार्य रूप से गलत ही होगा तब वह गैरधर्मनिरपेक्ष आचरण कर रहा होगा और संविधान की धर्मनिरपेक्षता की भावना का खून कर रहा होगा।

यह हो सकता है कि साम्प्रदायिक कट्टरवाद की प्रतिक्रिया में ही भारत के सेक्यूलर वर्ग स्वरूप ऐसा बन गया हो, साम्प्रदायिक कट्टरवाद के विस्फोटों ने देश की सेक्लूयर जमात की दृष्टि ही इतनी क्षीण करदी हो, उसकी आँखों में साम्प्रदायिकता की कौंध इस कदर बस गयी हो कि अब उसे खुद का चेहरा उन आँखों से दिखना ही संभव न रहा हो। जो भी हो, लेकिन आज जहाँ एक तरफ ऐसा लगता है कि साम्प्रदायिकता पर लगाम किसी दमनकारी कार्यवाही से ही संभव है, जिसे प्रेम की भाषा समझ नहीं आती उसकी क्रूरताओं का जवाब सनकी सेक्यूलरिज्म की असभ्य भाषा में ही संभव है वहीं दूसरी ओर ऐसा भी लगता है कि तथाकथित प्रगतिशील समाज विरोधी छिछोरे और संकीर्ण सेक्यूलरिज्म को उचित सीख कट्टरवादी संगठन ही भली प्रकार दे सकते हैं।


ऐसा नहीं है कि नास्तिकता, धर्म की आलोचना या निंदा, अल्पसंख्यक धर्म का समर्थन, बहुसंख्यक समुदाय के धर्म की भर्तस्ना, प्रगतिशीलता और धर्म का विरोध(जड़ रीति-रिवाजों का) धर्मनिरपेक्षता का लक्षण नहीं है। लेकिन ये सब लक्षण धर्मनिरपेक्षता की अनिवार्य शर्त भी नहीं हैं। धर्म-निरपेक्षता को कई बार या बहुधा ऐसा करना होगा लेकिन हमेशा ही ऐसा करना होगा और केवल यही करना होगा, यह जरूरी नहीं है।  इसके विपरीत कई बार धर्मनिरपेक्षता को धार्मिकता का, बहुसंख्यक धर्म का पक्ष भी लेना होगा, अल्पसंख्यक समुदाय का विरोध भी करना होगा, धार्मिक व्यक्ति को सेक्यूलर स्वीकार करना होगा। धार्मिक नैतिकता एवं मानवता की प्रशंसा भी करनी होगी। समृद्धि, विकास और मानवाता को परंपरागत  विचारों में भी स्वीकार करना होगा। प्रगतिशीलता की जड़ता, हिंसा, राजनीति और समाज विरोधी कूपमंडूक विचारों का विरोध भी करना होगा। मेरे विचार में भारतीय धर्मनिरपेक्षता का कोई एक अनिवार्य गुण है तो वह उदारता ही होगा। कोई भी वह भाषा जो कटु है, हिंसक है, चरित्रहनन करने वाली और प्रतिक्रियावादी है भारतीय संविधान सम्मत धर्मनिरपेक्षता की भाषा नहीं हो सकती है।

Tuesday, March 16, 2010

क्यूँ नहीं किया जा सकता कोटे में कोटा ! ःः महिला आरक्षण

महिला आरक्षण बिल के दो महत्त्वपूर्ण प्रावधान हैं एक तो यह कि महिलाओं को राज्य और केन्द्र विधान मण्डलों 33 प्रतिशत आरक्षण प्राप्त होगा। दूसरा यह कि महिलाओं हेतु ये 33 प्रतिशत निर्वाचक मण्डल बारी-बारी से पृथक-पृथक होंगे। अर्थात वर्तमान के प्रावधान के अनुसार 15 वर्ष की कुल अवधि में प्रत्येक निर्वाचक मण्डल को केवल एक बार महिला के लिये आरक्षित किया जायेगा। 15 वर्ष बाद क्या होगा ? कहना मुश्किल है। भारतीय राजनीति में महिला वर्ग का पृथक से कोई वोट बैंक नहीं है। भारतीय महिला का 95 प्रतिशत वोट अपने परिवार, जाति, समाज, धर्म, क्षेत्र या पार्टी के अनुसार ही होता है। 1 प्रतिशत से कम महिलायें महिला मुद्दों के प्रति जागरुक हैं तथा उनके अनुसार ही वोट करती हैं। भारतीय समाज में परिवार, जाति, समाज, धर्म, क्षेत्र या पार्टी के संगठानात्मक ठांचे से बाहर महिला या पुरुष जैसा कोई स्वतंत्र वर्ग आज के समय में राजनीतिक रूप से अस्तित्व में नहीं है। अपनी दोनों आँखे फाडकर भी आज हम कोई ऐसा स्वप्न नहीं देख सकते हैं जिसमें महिलायें एक वर्ग के रूप में मतदान के लिये घर से निकल रही हों, उनके अपने पुत्र, पिता, पति या भाई से राजनीतिक मतभेद इस स्तर के हों कि वे उनके खिलाफ या उनसे पृथक वोट कर रही हों। यही वह तथ्य है जो महिला बिल के झण्डाबरदारों को आज आत्ममुग्ध किये जा रहा है, वे अपने राजनीतिक भविष्य को पूर्ण सुरक्षित मानकर (उसे औरत की झाँई से भी अछूता समझ) उल्लास और उत्सव में खोये हैं। आज यदि इन्हें कोई चिंता सताये जा रही है तो वह इतनी ही है कि अपनी पार्टी के अन्तिम लाइन के नेताओं की बगावत के कारण कहीं पार्टी बिल का श्रेय लेने से वंचित न रह जाये, पार्टी की नीयत पर कोई दाग न लग जाये।

बिल की कुटिलताः उक्त प्रावधान के अनुसार अपने क्षेत्र का स्थापित नेता 15 वर्ष में 10 वर्ष अपने और 5 वर्ष अपने परिवार की महिला नेत्री जो उसकी माँ, पत्नी, पुत्री, पुत्र वधु आदि हो सकती है के लिये सुरक्षित मान रहा है। क्यूँकि वह सीट एक बार के लिये केवल महिला के लिये आरक्षित होगी, उसमें महिला उम्मीदवार के लिये जाति आधारित कोटा नहीं होगा। पार्टी टिकिट नेताजी के परिवार की महिला को देगी क्यूँकि जीतने की अधिकतम संभावना के आगे सारे आदर्श खूँटी पर टंगे होंगे। नेताजी का वोट बैंक उनके परिवार के काम आयेगा, जो आगामी चुनाव में उन्हें ज्यूँ का त्यूँ सुरक्षित वापस मिल जायेगा। जनता समझेगी कि चाहे MLA, MP नेताजी की सम्बन्धी हो असली नेतागिरी तो नेताजी के हाथ में ही होगी। नेताजी की चमचागिरी से ही नेतीजी की चमचीगिरी मानली जायेगी। महिला रबर स्टाम्प और पावर सारे नेताजी के पास सुरक्षित। इसलिये किसी भी स्थापित नेता को न दूसरा चुनाव क्षेत्र ढूँढना पडेगा, न उसके भविष्य पर कोई खतरा होगा। लेकिन इसी बिल में यदि दलित जातियों के कोटे का प्रावधान हो तो समझो नेताजी की नींद आज ही उड़ जायेगी। मानलो नेताजी सवर्ण हैं और महिला आरक्षण की सीट की लाटरी आ गई एस.टी. महिला के नाम तो क्या होगा ? यह सही है कि पार्टी टिकट तो उसी एस.टी. महिला को देगी जिसके पक्ष में नेताजी होंगे। लेकिन नेताजी की इतनी परवाह भी नहीं की जायेगी। क्यूँकि एस.टी. वर्ग एकजुट हो जाये तो नेताजी की मजबूरी होगी कि किसी भी एस.टी. महिला के पक्ष लेना ही पडेगा वर्ना अधिक अकड़ या विरोध अगले चुनाव में भी दुःख देगा। फिर यह भी मान लिया कि चुनाव तक तो एस.टी. महिला नेताजी की ही वफादार रहे, आगे भी काम –काज के लिये शायद ऐसा करे लेकिन वह अपनी जमीन नहीं बनायेगी ऐसा तो संभव नहीं है। राजनीति में आकर क्या वह महिला उम्मीदवार महत्वाकांक्षी नहीं होगी ? ठीक है, महिला के आरक्षण तो एक चुनाव में ही होगा आगामी चुनाव में उसे वह आरक्षण नहीं मिलेगा, लेकिन किसी महिला के सामान्य सीट पर चुनाव लड़ने में तो कोई पाबंदी नहीं है आज भी। उक्त एस.टी. महिला ने अपने पांच वर्ष के कार्यकाल में अपना मजबूत जनाधार विकसित कर लिया तो तथाकथित नेताजी तो गये इलाके से हमेशा-हमेशा के लिये, क्यूँ कि अगले चुनाव में महिला के लिये आरक्षण हो न हो, पार्टी टिकिट दे न दे, वह महिला अपने जनाधार के आधार पर भी तो चुनकर आ सकती है। बस यही कारण है कि राष्ट्रीय पार्टियाँ और तथाकथित महान् नेता महिलाओं को एक ही वर्ग रखना चाहते हैं उन्हें वर्गों में नही बांटना चाहते। क्यूँकि महिला के नाम अपनी पारिवारिक महिला को रेवडी बांट दें महिला नाम की खानापूर्ति हो जाये। हल्दी लगे न फिटकरी और रंग भी चौखो!

इसी प्रावधान की दूसरी धार भी स्थापित नेताओं के लिये ही है और महिला के लिये बेहद खतरनाक़। मान लीजिये एक महिला आरक्षण के तहत पांच वर्ष के लिये MP या MLA चुनी जाती है। इस चुनाव में उसे आरक्षण का, इलाके के स्थापित नेता का और पार्टी का सहयोग मिलता है। राजनीति में कभी कुछ भी स्पष्ट नहीं होता, आपको कभी नहीं पता चलेगा कि नेता कि हार में और जीत में किस फैक्टर ने कितना काम किया। आप लगभग अनुमान लगा सकते हैं लेकिन संशय से पूर्ण मुक्त नहीं हो सकते। अच्छा काम करने के बावजूद उसी सीट से सामान्य उम्मीदवार के रूप में उक्त महिला को चुनाव लड़ते हुए हमेशा हार का डर सतायेगा। क्यूँकि जो नेता पिछले चुनाव में साथ था वह विरोध में चला गया है, पार्टी का साथ नहीं मिल रहा है, सामान्य उम्मीदवार के रूप में पुरुष उम्मीदवार से मुकाबला अधिक कठिन है। ऐसे में वह अपनी जीत के प्रति केवल अपने पिछले कार्यकाल में अच्छे कार्य के बूते ही इतना आत्मविश्वास पैदा नहीं कर सकती । बाहरी दबावों के साथ उसे हार डर से भी मैदान छोडने की इच्छा बार-बार होगी। दूसरा वह सुरक्षित सीट की आस में महिला के लिये आरक्षित किसी दूसरे चुनाव क्षेत्र से उम्मीदवार होती है तो वहाँ उसे अपने पिछले कार्यकाल को कोई लाभ नही मिलेगा। इस प्रकार महिला एक और मनोवैज्ञानिक लड़ाई में परुषों से हार जायेगी।

यही एक प्रावधान जनता के लिये भी घातक होगा। महिला के लिये आरक्षित सीट से जो महिला चुनाव जीत कर आती है और वह स्पष्ट है कि उसे इस क्षेत्र से आगामी चुनाव नहीं लड़ना है तो संभवतः क्षेत्र के विकास पर ध्यान न देकर पाँच साल सुख-सुविधा भोगने पर ही ध्यान देगी। यह स्थिति प्रत्येक चुनाव क्षेत्र में न्यूनतम दो बार आयेगी, या तीन बार भी आ सकती है। पुरुष उम्मीदवार की कार्यकुशलता भी इससे प्रभावित होगी और हो सकता है व लापरवाह भी इसी आशंका में हो जाये कि शायद अगली बार उसकी सीट महिला के लिये आरक्षित हो जाये। एक बार उसकी यह आशंका गलत साबित हो जायेगी तो आगामी चुनाव के लिये तो उसे यह निश्चय हो ही जायेगा कि अब उसकी सीट महिला के लिये आरक्षित होने वाली है।

फिर भी क्यूँ संसद में महिला नेत्रियाँ इस बिल को लेकर खुश हैं और इसे अपनी जीत बता रही हैं। ऐसा इसलिये कि ये सभी महिलायें स्थापित हैं, इन्होंने अपनी जमीन बिना महिला आरक्षण के ही बना ली है। बिल का पूरा श्रेय तो इन्हें मिल रहा है लेकिन इनके लिये खतरा कोई नहीं है, बल्की पुरुष राजनेता भी इनके कृतज्ञ हो रहे हैं कि ये उनको सुविधापूर्वक महिला आरक्षण की गली से निकलने दे रही हैं।

यादव बंधु इसका विरोध कर रहे हैं। उनकी माँग उचित है। कहा तो यह भी जाता है कि वे इस आरक्षण को लागू नहीं होने देना चाहते। उनकी स्थिति क्या है वे खुद बेहतर जानते हैं। लेकिन उन्हें कोटे में कोटे के साथ परिवर्तनशील निर्वाचन क्षेत्रों के स्थान पर निश्चित निर्वाचन क्षेत्रों के प्रावधान की भी माँग करनी चाहिये। उन्हें अपना आन्दोलन जनता में ले जाना चाहिये। क्यूँकि महिला कोई वर्ग नहीं है और न उसके बनने की संभावना है, लेकिन दलित वर्ग को बिल की हकीकत समझाकर उसे बिल के प्रावधानों का विरोध कर संशोधन की माँग कर रही पार्टियाँ अपने साथ जोड़ सकती हैं। यह आज नहीं तो कल अवश्य होने ही वाला है।

बावजूद इसके हम यह चाहेंगे कि यदि राष्ट्रीय पार्टियों के छल उनकी हठधर्मिता के चलते यदि बिल में संशोधन संभव नहीं हो पा रहा है तो भी उसे संसद में पारित तो करवाना ही चाहिये। क्यूँकि वह दिन भी अवश्य आयेगा जब किसी भी सरकार को महिला आरक्षण में दलितों के लिये पृथक से कोटा निर्धारित करना ही होगा और महिलाओं के लिये आरक्षित सीटें निश्चित होंगी। तब संसद में महिला प्रतिनिधि 33 प्रतिशत नहीं होकर 50 प्रतिशत होंगी। वर्तमान बिल तो उन्हें कुल 33 प्रतिशत तक सीमित रखने और स्थापित महिला जन प्रतिनिधियों को भी उसी में एडजैस्ट कर लेने की बदनीयती से बनाया गया है।

Thursday, March 11, 2010

हूसैन मेरी आँख में !

मैं एक आस्तिक हूँ। परंपरा और संस्कार से हिन्दू पद्धतियाँ ही मुझे मिली हैं, मैं पूजा-पाठ करने वाला व्यक्ति भी हूँ। मैं किसी भी कला के बहाने से सरस्वती का नग्न चित्रण स्वीकार नहीं कर सकता। जाहिर है, हूसैन से मुझे भी शिकायत ही है। लेकिन मैं विरोध में अपने स्थान से खड़ा होना तो दूर गहरा सांस भी नहीं खींच सकता। हाँ अपने विचार किसी भी मंच पर रख सकता हूँ। जवाब धैर्य से सुन सकता हूँ।

आजकल ब्लाग जगत में वैसे भी हूसैन पर आर्टिकलों की बाढ़-सी आयी हुई है, खण्डन – मण्डन पूरे जोर-शोर पर है। कुछ लेख पढ़े हैं, वहाँ आई भावनावादियों की असंयमित टिप्पणियां भी पढ़ी हैं। एक ब्लाग पर हमारे एक तेजस्वी मित्र की टिप्पणी भी पढ़ी। उनकी मेधा, ईमानदारी और तर्क पद्धति के कारण सामान्यतया उनसे असहमत होने से पहले सौ बार पुनर्विचार करने की आवश्यकता होती है। लेकिन इस विषय पर वे भी हूसैन वादियों के समर्थन में हैं और मुझे उनसे सहमत होना संभव नहीं हो रहा है। इसलिये मैनें भी बार-बार अपने को खंगाला है। मुझे लगता है एक तरफ हिन्दू कट्टरवाद और उसके समर्थकों तथा दूसरी और हूसैनवादी प्रगतिशीलों के अरण्यरोदन में एक आम भारतीय, एक आम हिन्दू का प्रश्न पददलित हो रहा है। यह एक सामयिक प्रसंग है, मेरे जैसे व्यक्ति कुछ करने की स्थिति में नहीं है लेकिन यह अपनी जड़ताओं को खोलने, खंगालने का एक अवसर है। हमारे प्रगतिशील विचारों (जो इन दिनों बहुत जड़ हो गये हैं और अपनी दिशा निरंतर खोते जा रहे हैं) को भी ठोक-बजाकर देख लेने का अवसर है। दरअसल यह एक ऐसा मुद्दा है जिस पर बात करते हुए दोनों ही पक्ष उत्तेजित से हो जाते हैं इसलिये विमर्श में कहीं कुछ अतिशयोक्तिपूर्ण निष्कर्ष निकल आते हैं। मैंने बहुत पहले ‘वह’ चित्र किसी साहित्यिक पत्रिका में देखा है, पहले से सुन भी रखा था। उसे देखकर न मुझे क्रोध आया, न उग्र हुआ, न भावनाओं में उबाल आया, न जुगुप्सा हुई, बस एक कटु मुस्कान चित्रकार पर आयी और एक हल्का-सा क्षोभ मैंने महसूस किया, मुझे वह भद्दा चित्रण लगा। मेरे लिये वह मात्र मुंह फेरलेने वाला चित्र था। इससे अधिक कुछ नहीं। सब लोगों के साथ ऐसा हो तो शायद दुनिया को बहुत सी अतिवादी समस्याओं से छुटकारा मिल जाये। (लेकिन सभी लोगों को की भावना और आस्था का पैरामीटर एक-सा तो नहीं होता)। राजेन्द्र यादव जी से एक सभा में उस चित्र का संदेश भी समझा है। चित्र में सरस्वती (औरत आकृति) के हाथ में वीणा है, एक हाथ में पुस्तक है पीछे से शेर उन पर हमला करने वाली मुद्रा में है और साथ ही इस औरत आकृति के गुप्तांग को रेखा द्वारा उकेरा गया है। वस्त्र नहीं हैं, नीचे लिखा है सरस्वती। राजेन्द्र जी ने बताया कि सरस्वती अर्थात हमारी वाणी, शेर अर्थात पशु, एक पशु हमारी वाणी पर हमला कर रहा है। हिन्दू धर्म में सरस्वती को विद्या की देवी माना गया है। चित्र में यही दिखाया गया है। भारतमाता का चित्र मैंने कभी देखा नहीं है। इसके अलावा यही है कि कट्टरपंथी इसे लेकर उग्र हैं और दूसरा पक्ष यह कहता है वे कला को नहीं समझते और यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मामला है। हूसैन इन दिनों कतर की नागरिकता ले चुके हैं इसलिये यह मुद्दा एक बार फिर चर्चा में आया है, वे बहुत पहले ही इसी मामले के कारण देश छोड़ गये थे। नाम से ही जाहिर है कि वे मुसलमान हैं और चित्र का विषय हिन्दू देवी सरस्वती हैं, मामले में कट्टरों के पास यह भी एक मसाला है। बहस में दोनों पक्षों द्वारा दिये जा रहे मुख्य-मुख्य तर्क अब आम जानकारी में आ चुके हैं, अर्थात प्रकरण से पूरा पर्दा हट चुका है।

मामला कानून और संवैधानिक अधिकारों से जुड़ा हुआ है। अभिव्यक्ति की आजादी एक मौलिक अधिकार है। इसके तहत मैं समझता हूँ कि एक भारतीय किसी मुद्दे पर अपनी राय रखने, किसी निर्णय का तर्क संगत विरोध करने, अपनी इच्छाओं को जाहिर करने का, अपने विचारों को लिखित – मौखिक रूप से सार्वजनिक करने का मूलभूत अधिकार रखता है। इसमें कलायें भी शामिल हैं। लेकिन इसके लिये क्या कोई व्यक्तिगत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता शामिल है ? ये दोनों अलग-अलग हैं या एक हैं? उदाहरणार्थ मैं कहूँ कि देश में भ्रष्टाचार है, कालाबाजारी है और दूसरा मैं कहूँ कि श्री “अ” बहुत भ्रष्ट हैं, वे कालाबाजारी करते हैं तो क्या ये दोनों बातें एक ही अधिकार के अन्तर्गत आती हैं या अलग-अलग हैं? मुझे लगता है दूसरी बात में मुझे सबूत के साथ सामने आना पड़ेगा वरना मानहानि का मुकदमा झेलना पड़ेगा। मि. ‘अ’ के भी कुछ सवैंधानिक अधिकार हैं। दूसरा, देश सवैंधानिक रूप से धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है लेकिन किसी भी भारतीय को अपनी आस्था के अनुसार धर्म को मानने, पूजापाठ करने, अपने धर्म का प्रसार-प्रचार करने का हक़ भी देता है। अर्थात धार्मिक आस्थायें रखने का हक भी सवैंधानिक है। जाहिर है जो हक है उसमें यदि कोई बाधा पहुँचाई जाती है तो न्याय मांगने का अधिकार भी दोनों पक्षों को स्वतः मिल जाता है।

हालांकि हूसैन किस देश के नागरिक हों यह उनका निजी मामला है इसकी उन्हें पूरी आजादी है लेकिन यदि वे अपनी आयु को देखते हुए अदालती मामलों की परेशानी से (न्याय से नहीं) बचने के लिये गये हैं तो यह देश के लिये लज्जाजनक बात है यहाँ की न्याय व्यवस्था को अधिक उम्र के व्यक्तियों को न्याय सुलभ करवाने के लिये अधिक सुविधाजनक होना चाहिये। आखिर हर वृद्ध व्यक्ति तो देश छोड़कर नहीं जा सकता है। वृद्ध व्यक्ति के प्रतिकूल न्याय व्यवस्था के कारण यदि एक विश्व प्रसिद्ध प्रतिभा देश छोड़ जाती है तो सरकार को इस पर सोचना चाहिये और कुछ सुधार करने चाहिए। फिर भी यदि हूसैन कट्टरपंथियों के डर से गये हैं तो यह देश के लिये और भी शर्म की बात है। यदि सरकार अरबपति और प्रसिद्ध हस्ती हूसैन को सुरक्षा नहीं दे सकती, कट्टर पंथियों पर लगाम नहीं लगा सकती तो आम आदमी को कितनी सुरक्षा देती होगी उसे खुद ही सोच लेना चाहिये!

दूसरा पक्ष जो कहता है उस दृष्टि से भी घटना का विश्लेषण तो होना चाहिये कि हूसैन इस दैन्य का प्रदर्शन वे अपनी मार्केट वैल्यू बढ़ाने के लिये कर रहे हों, मुद्दा ज्वलंत रखने के लिये कर रहे हों, इस शक का भी कोई निदान आना तो चाहिये। इस विवाद के कारण हूसैन की प्रसिद्धि में जो इज़ाफ़ा हुआ है। उनकी पेंटिंगस् की कीमत बढ़ी है उससे उनको कितना आर्थिक लाभ हुआ है। आखिर यह कोई अनहोनी घटना तो नहीं है, ऐसे बहुत से विवाद है जिनसे कलाकार सुर्खियों में आते हैं, कट्टर पंथियों के वोट बढ़ते हैं दोनों ही लाभ में रहते हैं और देश के संसाधन बर्बाद होते हैं। आम आदमी को कष्ट पहुँचता है। बहुत से विवाद प्रकाश में हैं जिन्हें कूटनीति की तरह पैदा किया गया। कुछ का तो यहाँ तक कहना है कि हूसैन जैसे अमीर के लिये अदालतों के चक्कर लगाने की या स्वयं की सुरक्षा की कोई परेशानी भारत में हो ही नहीं सकती।

कुछ के अनुसार हूसैन ने कथित रूप से सरस्वती का नग्न चित्र बनाया है। यहाँ यह कथित शब्द अनावश्यक है। चित्र में केवल वीणा और पुस्तक ही इस बात के सबूत नहीं हैं बल्कि नीचे सरस्वती लिखा भी गया है फिर हूसैन ने कभी अस्वीकार भी नहीं किया कि यह चित्र उन्होंने नहीं बनाया और यह सरस्वती का चित्र नहीं है। शीर्षक शब्दों में अवश्य “नग्न सरस्वती” नहीं दिया गया है लेकिन गुप्तांग की आकृति उकेरी गयी है, वस्त्र नहीं है और सरस्वती लिखा गया है इसलिये मामला तो बिल्कुल वही है। दूसरा सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि यह मुद्दा कैसे बना? चित्र बनने के छब्बीस वर्ष बाद ! कट्टरवादी संगठनों द्वारा यह मुद्दा बनाया गया है। एक ब्लाग पर आया प्रश्न वाजिब है कि यह बात आयी कहाँ से ? उनके अनुसार इसे जानबूझकर कट्टरवादी संगठनों द्वारा एक मुस्लिम कलाकार को निशाना बनाया गया है। मेरा भी यही मानना है कि निश्चित ही इसके पीछे राजनीतिक और कट्टरवादी मकसद हैं। लेकिन एक और मूल प्रश्न यह है कि यदि हूसैन ने यह चित्र बनाया ही नहीं होता तो छब्बीस साल तो क्या छह सौ साल बाद भी ऐसा कोई मुद्दा नहीं बनाता। सही-गलत, देर-सवेर, स्वाभाविक-साजिश आदि के प्रश्न और विवरण तो आनुसंगिक हैं, प्रकरण बनता तो वहीं से है जहाँ से हूसैन ने यह चित्र बनाया। जहाँ तक बात मुस्लिम कलाकार को निशाना बनाने के मकसद की है तो देश में हूसैन ही तो अकेले मुस्लिम कलाकार नहीं है, या यही चित्र किसी हिन्दू ने बनाया होता तो क्या हिन्दू समाज इसे स्वीकार कर लेता? नहीं । हूसैन का बचाव कर रहे हिन्दू बौद्धिकों को भी तो विरोध झेलना पड़ रहा है। कट्टरवादी संगठनों का यह मकसद हो सकता है कि वे मुसलमान को निशाना बनायें, लेकिन मामला केवल इतना ही नहीं है। कट्टरवादियों के घृणित इरादों के मेल के बावजूद यह एक साधारण हिन्दू की आस्था पर चोट का मामला है। जो इसे मन से स्वीकार कर पाये या नहीं लेकिन उग्र तो नहीं ही होगा। एक प्रश्न यह भी है कि इस पर कलाकारों द्वारा, दर्शकों द्वारा भी आपत्ति नहीं है सिर्फ कट्टरवादी संगठनों द्वारा आपत्ति है। साधारण व्यक्ति की आपत्ति की पहचान क्या है ? देश मंहगाई से त्राहि-त्राहि कर रहा है, 100रु. कमाने वाला मजदूर भी बेचारा जाता है और परचूनी की दुकान से 40 रु. किलो की दाल खरीद लाता है। चुपचाप पकाता है, भूख काटता है अगले दिन फिर काम पर जाता है। तो क्या देश में मंहगाई नहीं है ? अब इसी मुद्दे पर राजनीतिक दल आन्दोलन करते हैं, बाजार बंद करते हैं सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करते हैं तो निश्चित ही वे अपने वोट बैंक लिये ऐसा करते हैं, अपना फायदा देखते हैं, सत्ता में आना चाहते हैं लेकिन क्या इससे मंहगाई का मुद्धा आम आदमी का नहीं रह जाता ? या देश में मंहगाई स्वीकार्य हो जाती है ? मुद्दे का मूल मुद्दे के भीतर मौजूद है तो यह बेमानी हो जाता है कि उसे उठाने वाले का मकसद क्या है, और वह कौन है। ऐसे लोगों को हतोत्साहित करने का तरीका यही है कि शीघ्र न्याय किया जाये, तस्वीर साफ की जाये। आप मंहगाई कम कर दीजिये मुद्दा बनाने वालों के राजनीतिक, कट्टरवादी या घृणित जैसे भी इरादे हों सब धरे रह जायेंगे। फिर सांस्कृतिक संगठनों का यह कर्तव्य भी है कि वे इन मुद्दों पर भी जागरुक रहें। हूसैन की आयु अधिक है, उन्हें कट्टरपंथ से जान का ख़तरा है तो वे पूरी तरह सहानुभूति के पात्र हैं लेकिन इससे लाखों-करोडों लोगों की आस्था का प्रश्न अनुत्तरित नहीं छोड़ा जाना चाहिये।

कुछ तीखे प्रश्नों का जवाब भी हूसैन को देना चाहिये। वे नख-शिख नहीं बनाते, चेहरे नहीं बनाते, पर गुप्तांग जरूर बनाते हैं, क्या वे इससे भी नहीं बच सकते थे ? या वे गुप्तांग को चेहरे से ज्यादा महत्त्वपूर्ण मानते है ? या गुप्तांग में कला संभावनायें (भावाभिव्यक्ति वगैरह) चेहरे से ज्यादा हैं ? इसका जवाब शायद “बस कला है” से अधिक कुछ नहीं दिया गया है। (चेहरे नहीं बनाना, यह निपुणता भी हो सकती है, और कलागत अकुशलता का आवरण भी, कोई भी कलाकार इसे समझ सकता है, इसके भी कुछ भावनात्मक कारण बताये जाते हैं क्या वे कारण गुप्तांग चित्रण पर लागू नहीं होते) खैर ! एक चित्रकार के रूप में हूसैन को पूरा अधिकार है कि वे क्या चित्र बनायें, कैसा चित्र बनायें, कब बनायें आदि। कला में प्रतीकों और बिम्बों का प्रयोग जरूरी ही नहीं बल्कि असल में कला ही यह है, लेकिन प्रतीकों और बिम्बों का निरूपण और भी ज्यादा जरूरी है। राजेन्द्र यादव के द्वारा बताया गया चित्र का संदेश कहीं भी कम नहीं होता यदि सरस्वती के गुप्तांग की रेखा नहीं उकेरी गई होती। चित्र उतना ही सम्प्रेष्य रहता। न हूसैन ने , न किसी कला समीक्षक ने यह बताने की जरूरत समझी है कि नग्नता का विशेष अर्थ क्या है? उसका कलात्मक उत्कर्ष क्या है ? यह नग्नता सरस्वती के साथ कैसे महत्त्वपूर्ण अर्थ ग्रहण करती है या कलागत ऊँचाई को पहुँचती है। हूसैन का जिम्मेदार नागरिक के रूप में यह भी कर्तव्य है कि वे अपने कला के प्रति कम से कम इतने सजग तो रहें कि वे किसी समाज की धार्मिक भावनाओं को ठेस न पहुँचायें। आखिर कला का महत्त्व भी सामाज में ही संभव है। अकेला व्यक्ति जानवर भी होता है और संत भी। और इन दोनों को ही सामाजिक मर्यादाओं की परवाह नहीं होती न ही इनके लिये उसका कोई अर्थ है। लेकिन एक सामाजिक व्यक्ति न तो जानवर के रूप में समाज को स्वीकार है न समाज का ऐसा संत हो जाना संभव है, समाज में घटने वाली घटनाओं से हर सामाजिक प्रभावित होता है। हूसैन के चित्र में खोट बताने वालों के लिये कहा जाता है कि यह उनकी तंगनज़री है, जब यह बात मैंने एक बातचीत में कही तो मुझसे पूछा गया कि तंगनजरी कैसे ? उनका बनाया गया गुप्तांग तो दिख रहा है, क्या गुप्तांग के अन्दर भी कुछ बना रखा है जो हमको नहीं दिखता इसलिये !!! जाहिर यह कटाक्ष है। इसके विपरीत कुछ कम मौजूं प्रश्न नहीं उठाया गया कि यह हूसैन की तंगनजरी है, इनका भी कम घृणित इरादा नहीं है। उनकी हिन्दू आस्था केन्द्रों पर चोट करने की और धर्म को जलील करने की मानसिकता है। अभिव्यक्ति की आजादी का आशय नहीं है कि कलाकार मुंह बिदकाये, गाल फुलाये या किसी को जीभ दिखाये। इस प्रश्न का उत्तर भी तलाशा जाना चाहिये। हूसैन का मामला इतिहास में पहला नहीं है, यह पहली बार नहीं कि किसी धार्मिक प्रतीक, चिह्न या स्थल के साथ छेड़छाड़ की गई हो। सैकडों मंदिर हैं, जहाँ लाखों मूर्तियाँ होती थीं जिनमें एक भी ऐसी नहीं मिलेगी जिसे खंडित नहीं किया गया हो। अभी तक लोग कभी अंबेडकर कभी गांधी की मूर्ति से तोड़फोड़ करते हैं। मंदिरों, मस्जिदों की दीवारों पर इबारत लिख जाते हैं वहाँ गंदगी फैंक जाते हैं। तो क्या वे सैनिक, वे असामाजिक तत्व भी कलाकार हैं जिन्होंने ऐसा किया ! उनकी कला को भी समझने की जरूरत है ? यह मानसिकता खत्म हो गई है, ऐसा मानना जल्दबाजी होगी। आखिर अभी तो तालिबान ने बुद्ध की प्रतिमा को उड़ाया था। अभी तो बाबरी मस्जिद को गिराया गया है। हूसैन की कारस्तानी इनसे कहीं ज्यादा कलात्मक है। एक अच्छा कलाकार होना अच्छा नागरिक होने की गारंटी भी नहीं है। धार्मिक आस्थावान मनुष्य के लिये उसके आस्था केन्द्र पूज्य होते हैं। पर यदि उसके सामने उन्हीं केन्द्रों का मखौल उडा दिया जाये तो या तो वह अपनी क्षमताभर हिंसक हो उठेगा या उसका मनोबल टूटने में क्षण भी नहीं लगेगा। वह असहाय होकर आत्मसमर्पण कर देगा। हूसैन पर इस तरह का आरोप गलत हो सकता है लेकिन इसकी पड़ताल होनी आवश्यक है। क्या हूसैन इसे स्वीकार करते हैं कि उन्होंने किसी की धार्मिक भावनायें भड़काने के लिये ऐसा नहीं किया, और यदि किसी की भावनायें आहत हुई हैं तो वे क्षमा चाहते हैं अपना चित्र वापस लेते हैं ? कोई भी व्यक्ति जो उदार हो, अपने स्थान पर चाहे कितना ही सही हो आस्था के प्रश्नों पर ऐसा एक क्षण में कर सकता है? हूसैन ऐसा नहीं करते हैं तो मामला उलझता है।

प्रश्न यह भी है कि आस्था क्या है ? भावना क्या है ? यह भड़कती कैसे है ? भडकती तो यह जरूर ताकत के बल पर ही है, सही पक्ष को दबाकर गलत पक्ष को संरक्षण देने से भी यह भड़क सकती है। और ज्यादा कट्टर पंथी जानते होंगे या उनके स्वार्थ। लेकिन आस्था क्या है, भावना क्या है? इसे कोई आस्तिक ही जान सकता है। नास्तिक दृष्टिकोण से इसे नहीं समझा जा सकता। इसके अवैज्ञानिक होने का तर्क भी आधा तर्क है। किसी भी आस्तिक व्यक्ति के पास कोई ऐसा साधन नहीं है कि वह किसी अन्य व्यक्ति से कह सके कि ईश्वर है। ठीक इसी तरह किसी नास्तिक व्यक्ति के पास भी ऐसा कोई साधन नहीं है जिसके बल पर वह किसी अन्य व्यक्ति से जोर देकर कह सके कि कोई ईश्वर नहीं है, उसकी आस्था को निर्मूल साबित कर सके। इसलिये स्वस्थ समाज में समान आस्थाओं वाले व्यक्ति अपने विचार साझा कर सकते हैं, अन्य को अपनी आस्था के विषय में बता सकते हैं लेकिन आग्रही नहीं होना चाहिये। न किसी आस्तिक को न नास्तिक को। किसी का मखौल उड़ाना तो निश्चय ही हिंसा है। उदाहरण के लिये मि. ‘अ’ के पिता शहर के चौराहे पर निर्वस्त्र खडे हैं तो इससे मि. ‘अ’ को दुःख होगा और कोई भी सामाजिक प्राणी उनके दुःख को समझ लेगा, लेकिन किसी छोछे मानवशास्त्री के लिये तो वे अपनी प्राकृतिक अवस्था में ही खड़े हैं, उसके लिये इसमें दुःख की कोई बात ही नहीं है। इसलिये अपनी आस्था अपने विचार के साथ इस तरह जीना चाहिये की अन्य को भी अपनी आस्था के साथ जीने का पूरा स्पेस मिले। धर्मनिरपेक्षता का सवाल भी इसी से जुड़ा है, संविधान के अनुसार हमारा राष्ट्र धर्मनिरपेक्ष है, अर्थात हमारी सरकारें धर्म निरपेक्ष होंगी, नागरिक अपने धर्म को मानने के लिये स्वतंत्र हैं, या नास्तिक हों। इस प्रकार किसी भी धार्मिक को इतना उदार होना चाहिये कि जितना वह अपनी आस्थाओं का सम्मान करता है उतना ही अन्य की आस्था और नास्तिकता का भी सम्मान करे। तब संविधान के अनुसार राष्ट्र धर्मनिरपेक्ष होगा। हिन्दू मान्यताओं के खिलाफ होने से हूसैन का चित्र एक आम हिन्दू की आस्था पर चोट करने वाला तो है ही।


कुछ लेखों में भारतीय और खासकर हिन्दू संस्कृति के उजले पक्ष पर और उसके खुलेपन पर जबरदस्त लिखा है, लेकिन दिक्कत यह है कि वे हूसैन के मामले में उसकी दुहाई-सी देते हैं। सच है हिन्दू शिवलिंग की पूजा करते हैं आप बनाइये कोई नहीं भड़केगा, रति प्रसंगों के कथाचित्र बनाइये कौन भड़कता है! लेकिन सरस्वती नंगी बैठी है, यह हूसैन ने किस पौराणिक आख्यान से लिया है, यह कहाँ का कथा प्रसंग है, इसे स्पष्ट करने की जिम्मेदारी उन्हीं की है। क्या उन्होंने कोई नया पुराण रचा है? उनका यह चित्र किसी शृंखला का चित्र नहीं है। एकबार, यदि हूसैन किसी पौराणिक कथा के अनुसार स्नान या रति प्रसंग में सरस्वती को नग्न उकेरते तो बात फिर भी गले उतर सकती थी लेकिन अपने स्त्युत्य रूप में वे नग्न बैठी हैं। क्या ऐसा इसलिये भी जरूरी हो सकता है कि तब नग्न अवस्थाओं में वे उनके हाथ में वीणा और पुस्तक न दे पाते और हिन्दुओं को पता ही नहीं चलता कि वे उनकी सरस्वती हैं तो भावना ही तथाकथित रूप से नहीं भड़कतीं, मकसद ही पूरा नहीं होता ? यदि इसके पीछे कोई प्रगतिशील विचार होता तो यकीनन वे सरस्वती के हाथ में किताब के साथ कम्प्यूटर भी देते। लेकिन मकसद यह नहीं था। हूसैन वादियों के शब्दों में कहा जाये तो सभ्यता की गाडी को उल्टी दिशा में खींचने की कोशिश है, सरस्वती हाथ में वीणा तो रखती हैं, किताब तो रखती हैं लेकिन वस्त्र नहीं पहनतीं यहाँ तक कि गुप्तांग को भी नहीं ढकतीं हैं। क्या यही प्रगतिशीलता है, यही कल्पना का आकाश है ? बात यह कि हिन्दू पुराणों के अनुसार शिव बैल की सवारी करते हैं, कोई कलाकार जितना अच्छा कला प्रदर्शन कर सकता हो वैसा चित्र बनाये, लेकिन कोई उन्हें गधे की सवारी करते हुए चित्र बनाये और कहे कि यह कला है, अभिव्यक्ति की आज़ादी है, तो यह छूट किसी को भी नहीं लेनी चाहिये। हाँ, यदि कोई शोध कर लिया गया हो कि सरस्वती कपडे नहीं पहनती थी, शिव गधे की सवारी करते थे तो उसको सामने लाना चाहिये। किसी के विश्वास के साथ खेलना कलाकार को तो शोभा नहीं देता। यह ठीक है कि हूसैन अपने चित्रों को लेकर गली-गली नहीं घूमते हैं, लेकिन वे गुफामानव भी नहीं है। उनके चित्रों का प्रचार-प्रसार होता है। और यदि ये कृति उन्होंने अपने लिये ही बनाई थी तो उसे छुपाकर रखते, होता तो यह तब भी गलत, लेकिन किसी को फसाद करने का मौका तो नहीं मिलता। इस पर क्या कहा जायेगा कि विवाद के बावजूद इस चित्र को एक प्रतिष्ठित पत्रिका ने छापा और सार्वजनिक किया। जब कट्टरपंथियों से उनकी असहिष्णुता की बात की जाती है तो उन्हें लगता है कि हूसैन का पक्ष लिया जा रहा है, हूसैन वादियों से तो प्रश्न करना ही कट्टरवादी होना है। अज़ीब विडम्बना है।

पैगम्बर साहब का चित्र बनाने की बात कहना गलत है, जो आप अपने साथ नहीं चाहते किसी अन्य के साथ भी क्यूँ चाहते हैं यह सरासर असहिष्णु बात है, और यह माँग करना भी हूसैन के अपराध से कम अपराध नहीं है, बल्कि इसके खिलाफ भी कानूनी कार्यवाही की जानी चाहिये। लेकिन एक प्रश्न हूसैन का बचाव करने वालों से जरूर है। हूसैन यदि हिन्दू-मुसलमान की परिधि से बाहर आ गये हैं, वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सदुपयोग कर रहे हैं, रंगों और रेखाओं के अद्भुत चित्रकार हैं(जो कि हैं ही) तो एक चित्र बनाकर इसका प्रमाण दे ही दें और मामले को खत्म करें, क्यूँ कट्टर पंथियों को इतना बोलने और हावी होने का मौका दे रहे हैं। या उनकी तरफ से कोई प्रवक्ता करदे। हमारे देश में ऐसे खिलाड़ी रहे हैं जो दर्शकों की माँग पर छक्का लगाते थे। चित्रकार के लिये तो किसी मांग को पूरा करना और भी आसान है क्योंकि उसे किसे बॉलर का सामना नहीं करना होता, गैंद और बाल दोनों उसी के हाथ में होती हैं। स्वयं हूसैन किसी और की इच्छा से हिन्दू कथाओं पर चित्र बनाते रहे हैं। क्या नहीं हो पायेगा? (वास्तव में यह प्रश्न न मेरा है और न मैं चाहता हूँ कि हूसैन साहब मुस्लिम भावनाओं के साथ भी खेलें लेकिन यह एक खीझ है जो इस तरह सामने आती है, मुसलमान कब कहते हैं कि हूसैन ने सरस्वती का नग्न चित्रण कर कोई अच्छा काम किया है! कोई भी धार्मिक व्यक्ति आस्था और भावना को समझ सकता है। यह प्रश्न मूल प्रश्न नहीं है बल्कि हूसैनवादियों के अतिवाद से उपजी खीझ है। यदि ये वास्तव में ये कट्टर या असहिष्णु प्रश्न होता तो मुझे लगता है कि कट्टरवादियों में कुछ कलाकार तो होंगे ही जो इसे कर दिखाते? ठाकरे भी कार्टूनिस्ट तो हैं ही। कहा जाता है कि हूसैन ने ही महाभारत और रामायण पर पेंटिंगस् की एक पूरी शृंखला बनायी किसी अन्य चित्रकार या हिन्दू चित्रकार ने ऐसा नहीं किया। इसका भाष्य कैसे किया जाये ! क्या हूसैन ने अपनी पेंटिंगस् का जो विषय चुना उसमें उनका कोई हित नहीं था या हिन्दू समाज पर किये गये एहसान का बदला वे सरस्वती का नग्न चित्रण कर वसूल रहे हैं ?

हूसैन बहुत बड़े कलाकार हैं, यही तर्क इतना बडा हो गया है कि वे प्रश्नातीत हो गये हैं, उत्तरातीत होना तो उनके हाथ की बात है। उन्हें अपनी कृति की व्याख्या भी तो करनी चाहिये, आखिर प्रश्न हूसैन या उनकी कला पर नहीं एक खास चित्र और उसे लेकर हूसैन के इरादों पर ही हैं, क्यूँ उसकी परिधि को बढ़ाया जाता है? क्या बहुत निपुण अकाउण्टैण्ट गबन नहीं कर सकता है ? क्या उसके खाते ऑडिट से बाहर होने चाहिये ? ठीक है अकाउण्टैणट द्वारा की गई बारीक गडबडियाँ तो कोई अकाउण्ट का जानकार ( अर्थात कलासमीक्षक, आलोचक) ही बता पायेगा लेकिन उसने जगह-जगह ओवरराइटिंग की है, काट-छांट की है, अंक बदल दिये हैं यह तो साधारण साक्षर आदमी भी बता सकता है। हूसैन वादियों से, जो अश्लीलता सिर्फ देखने वाले की आँखों में बताते हैं , से एक अश्लील प्रश्न एक उदाहरण के जरिये पूछ लेना उचित होगा। यदि मि. ‘अ’ बहुत उच्च कोटि के अभिनेता हैं वे अभिनय में इतने डूब जाते हैं कि खुद को भूल जाते हैं। नाटक में कोई रति प्रसंग है तो क्या मंच पर वह अपनी साथी कलाकार के साथ वह कला प्रदर्शन कर सकते है? यह भी खीज़ है लेकिन इससे तुरंत समझ में आ जाता है कि अश्लीलता क्या है ! या इस प्रसंग को संकेतों, प्रतीकों, स्थितियों, बिम्बों के माध्यम से दिखाना चाहिये। क्या इस कला प्रदर्शन की कोई सीमारेखा नहीं होगी? यह कहानी हो सकती है लेकिन बचपन में सुना था की आला-उदल की नोटंकी में एक कलाकार ने भावावेग में मंच पर सचमुच ही साथी कलाकार को कटार भोंक दी और अभिनय में डूबा रहा। पुलिस आयी और गिरफ्तार कर ले गयी। बहुत अच्छा मूर्तिकार कल गाँधी जी की, अंबेडकर साहब की नग्न मूर्ति चौराहे पर लगा देगा तो क्या यह भी समाज को स्वीकार कर लेना चाहिये। जिसकी भारत के लोकतंत्र में आस्था हो वह क्या तिरंगे के अपमान से भी दुःखी नही हो। क्या वहाँ भी आस्था का प्रश्न खारिज़ किया जा सकता है ? इस बाबत संविधान माफ करता है ?

एक लेख में कुछ वैज्ञानिक क्रांतियों और समाज सुधारों का ज़िक्र किया है और उनके बाबत् की गई कट्टरवादी कार्यवाहियों और समाजसुधार के मामले में स्वीकार्यताओं का उल्लेख भी किया है। उन्होंने ब्रूनो, गैलिलियो और दयानन्द सरस्वती का जिक्र किया है। उदाहरण बडे सटीक हैं और कोई भी बर्बर कार्यवाही हूसैन के साथ हो तो यह आधुनिक समाज में कहीं ज्यादा शर्मनाक स्थिति होगी। अब तो समाज का वैज्ञानिक आधार भी काफी सुदृढ़ है। लेकिन मेरा प्रश्न थोडा भिन्न है। साफ प्रश्न यह है कि इन मामलों से हूसैन की तुलना का कोई संबंध नहीं है। न तो हूसैन ने कोई वैज्ञानिक खोज की है, न उन्होंने कोई समाज सुधार का कार्य किया है, न अंधविश्वास से पर्दा उठाया है। आखिर किस तरह से हूसैन का मामला इन उदाहरणों से मेल खाता है? उन्होंने सिर्फ आस्था से खिलवाड़ किया है। क्या वे चित्र के जरिये मानव समाज को दिशा देना वाला यह जरूरी सत्य उजागर करते हैं कि सरस्वती कपडे नहीं पहनती थी। क्या कपडे पहनी हुई सरस्वती की आराधना की तुलना में नंगी सरस्वती की आराधाना अधिक वैज्ञानिक और तर्क संगत है ? क्या वे यह कहना चाहते है कि सरस्वती अपना यौवन दिखा कर शेर को रिझा रही हैं ? इस चित्र के जरिये उन्होंने किसी प्रकार का कोई प्रगतिशील विचार समाज को नहीं दिया सिवाय चिकोटी काटने के? इससे बेहतर तो यह होता कि वे देवी-देवताओं के अस्तित्व पर प्रश्न उठाते, मूर्ति पूजा पर प्रश्न उठाते, तो यह दर्शन की बात होती।

कट्टरवादी हिन्दू संगठनों को हिन्दुओं पर कृपा करनी चाहिये और धार्मिक मसलों को राजनीति का औजार नहीं बनाना चाहिये। इससे वे हिन्दू का हूसैन की तुलना में लाख गुणा अहित करते हैं, हिन्दू हूसैन के चित्र के बजाय कट्टरवादी हरकतों और असंयमित प्रतिक्रियाओं से लाख गुना अधिक शर्मसार होता है, इसलिये हिन्दुओं को अपने इन अतिवादी संगठनों पर लगाम लगानी चाहिये। क्या हूसैन के विरोध में उनके पास कोई संविधान सम्मत कार्यक्रम नहीं है, इनके भी अलोकतांत्रिक बयानों और तोड़फोड़ पर सज़ा सुनिश्चित होनी ही चाहिये। वे देश के कानून पर भरोसा नहीं करते। प्रदर्शनियों में तोड़फोड़, जान से मारने की धमकियों से क्या वे यह साबित नहीं कर रहे कि वे वास्तव में नंगे ही हैं?

और हूसैन पर यह जिम्मेदारी तो बनती है कि वे हिन्दू समाज को बतायें कि इस चित्र के पीछे उनकी दुर्भावना नहीं थी। और यह केवल उनके वक्तव्य से नहीं, कुछ तीखे प्रश्नों पर उनके जवाब से तय होना चाहिये, लेकिन अब देश के पास यह अवसर नहीं है क्यूँकि हूसैन अपनी कारस्तानी कर उडन-छू हो गये हैं।

मेरे विरोध का तरीकाः-

सुनो पार्टनर

चौराहे पर कोड़े तो नहीं मारे जाते

लेकिन कुछ ख़तरे अभी भी हैं

सीधे-सीधे गुण्डई में

इसलिये हम इसे

कविता के, कहानी के, चित्र और पेंटिंग के

अर्थात कला के बहाने करते हैं

Monday, March 8, 2010

गलत नहीं हैं लालू-मुलायम

इन दिनों महिला आरक्षण बिल का विरोध कर रहे लालूप्रसाद यादव और मुलायमसिंह यादव की छवि विलेन की सी बनाई जा रही है। कहा तो यह भी जाता है कि महिला आरक्षण बिल के साथ समर्थन और विरोध करने वाले सभी पुरुष राजनीतिज्ञों की आपसी सहमति के तहत यह नाटक किया जाता है, ताकि बिल लटका रह सके और पुरुषों का वर्चस्व बना रहे। खैर! पर्दे के पीछे क्या है ? इसे तो ज्ञानी लोग ही जानते होंगे। लेकिन लालू-मुलायम-शरद द्वारा किया जा रहे ऐतराज़ मुझे सही जान पड़ता है। मुझे यह भी आश्चर्यजनक लगता है कि इन नेताओं की बात मानने में सरकार या प्रधानमंत्री को क्या अड़चन है ! यदि महिला आरक्षण के भीतर एस.सी, एस.टी, अल्पसंख्यक, दलित, ओबीसी आदि का कोटा निर्धारित किया जाता है तो कांग्रेस-भाजपा को क्या आपत्ति है और क्यूँ है। क्या इसलिये कि संसद में सवर्ण महिलायें इसे स्वीकार कर रही हैं और पिछडे़ वर्गों की महिलायें प्रभावहीन हैं?  एक लचर-सा तर्क दिया जा रहा है कि महिला एक ही वर्ग है उसे बाँटो मत। तो जनाब! जो समान्य आरक्षण है उसमें क्या उन्हें पहले सी नहीं बांट रखा है। और यह बंटवारा क्या उनके रिश्तों का बंटवारा है ? यदि दलित महिलाओं का कोटा निर्धारित नहीं किया जाता है तो यही संभावाना ज्यादा है कि कांग्रेस-भाजपा की सवर्ण महिलायें और प्रभावशाली नेताओं की रिश्तेदार ही इस आरक्षण का फायदा उठाती रहेंगी। मुझे लालू-मुलायम-शरद की आपत्ति तो समझ में आती है लेकिन सरकार द्वारा उसे नहीं मानने के कारण समझ नहीं आते, आखिर कांग्रेस-भाजपा क्यूँ दलित और पिछड़ी महिलाओं को आरक्षण नहीं देना चाहती ? होना तो यह चाहिये कि समस्त प्रकार के आरक्षण में क्रीमीलेयर सीमा भी निश्चित कर देनी चाहिये। अब बिल की स्थिति यह हो गई है कि वह हंगामें की भेंट चढ़ गया है, बावजूद इसके पास हो सकता है लेकिन एक और जुगलबंदी हो गई है। कांग्रेस के पास बहाना है कि बहस होना संभव नहीं है इसलिये इसे बिना बहस के पास किया जाये। भाजपा के पास बहाना है कि बिना बहस के समर्थन नहीं करेंगे। कांग्रेस नीत सरकार आसानी से बहस करवा सकती है, भाजपा को बिना बहस क समर्थन करने में कोई दिक्कत नहीं आनी चाहिये, आखिर सासंदों के वेतन-भत्ते बढ़ाने के बिलों पर कितनी बहस होती है? सरकार चाहे तो यादवों की बात मानकर इस बिल को सर्वसम्मत्ति से पास करवाकर इतिहास रच सकती है। अर्थात यह बिल हर तरह से पास हो सकता है। लेकिन नहीं होगा। पूछिये क्यूँ... ? सभी दलों को महिलाओँ के वोट चाहियें उनका शासन नहीं ।

Friday, March 5, 2010

खूंटी

खूंटी


अपने ही खण्डहर में
खोजते हुए वास्तुकला
मैं पा जाता हूँ अपना भव्य अतीत
जिसके स्मति सुख में
जीत लेता हूँ वर्तमान की प्रत्येक चुनौती

प्रगति की चाह में
जहाँ गिरा था लड़खड़ाकर
और तब्दील हो गया था अपने मकबरे में
मैं कामयाब हो सका एक स्वप्न देखने में
जिसमें उभरीं एक-इक कर पिछली घटनायें
जो कुछ तहों के बीच धुंधली अवश्य हो गयी थीं
मगर थीं सुरक्षित

विगत आज भी था तैयार हर अनागत के स्वागत को
अगर मैं लौट सकूं !!!

कह रहा था अतीत मेरा “असम्भव सदा असम्भव रहा है
तुम नहीं लौट सकोगे, रुके रहे तो हो जाओगे अतीत
 ढूँढ़ो अपने मंदिर की नींव”

मैं मुश्किलों से हो जाता हूँ तैयार
करने को वही उपक्रम
जो हारे को साबित करता है विजेता

नींव का मिलना आज भी उतना ही सहज है मेरे देश में
लेकिन उठती हुई दीवार की ईंट पहचानने के लिये
अपेक्षित है एक प्रस्तर-भेदी दृष्टि

जो समाहित होती है मेरी आँखों में कौंधकर
छूते ही एक जाना-पहचाना-सा स्पर्श
किसी टूटी हुई चिकनी वस्तु पर
जिसकी चुभन रक्तस्राव के लिये चीर तो दे नसें
लेकिन न दे कोई पीड़ा, न दे आह

फिर न पड़े किसी आह पर किसी महल की नींव

धिक्कार! यदि वहाँ पहुँचकर भी मैं ढूँढ़ता हूँ वही खूंटी
जिसपर टांगते आये हैं हम वर्षों से आदर्श

Tuesday, February 23, 2010

आज़ादी, बड़ा आदमी

मैं आज़ाद हूँ
  
अब मैं आज़ाद हूँ
मैं भी चाहूँ तो खा सकता हूँ सेब

हालांकि मेरी आँते
पचा नहीं सकेंगी सेब
मेरे स्वास्थ्य को देखते हुए
सेब अभी भारी पड़ेगा मुझपर

हालांकि मेरे बाग में अभी उगा नहीं है सेब
सेब मेरे इलाक़े में अभी आता नहीं है
यह अलग बात है कि मेरी ज़ेब
अभी चुकता नहीं कर सकती सेब के दाम
इससे क्या कि यदि आप दिखायें तो
शायद मैं पहचान भी नहीं सकूँ सेब !!!

पर अब तो मैं आज़ाद हूँ जी
मैं भी चाहूँ तो का सकता हूँ सेब।

बड़ा आदमी

बड़ा आदमी छोटा नहीं होता
बड़ा होता है
उसकी सोच चाहे बंटी हो छोटे-छोटे टुकड़ो में
पर वह होती है बड़ी सोच

आप जा नहीं सकते कभी बड़े आदमी के घर
कदम कर देंगे इंकार, मन करेगा संकोच
बड़ा आदमी भूल जायेगा आपके घर आना
और आप शुक्रगुजार होंगे उसकी याददाश्त के

जिस दिन आ जायेगा बड़ा आदमी आपके घर
घर सिमट-सिकुड़कर खुद ही हो जायेगा छोटा
छोटा हो जायेगा आपका कद, आपका मन
हृदय, सपना, सुख, समझ, पूँजी
सब छोटे होते जायेंगे बड़े आदमी के पदार्पण के साथ ही

बडा आदमी
आपके स्वस्थ-तंदुरुस्त, खेलते-उछलते बच्चे को
साबित कर देगा बीमार
आपके शाक-भाजी को कुपोषक
पानी को जहरीला
दुबली-पतली, सहमी-सी बच्ची को
बहादुर और इण्टैलीजेन्ट,
काली-कलूटी, डरी-सहमी, भौंचक्की-सी पत्नी को
मादक और संस्कारवती
आपके नरक को स्वर्ग साबित कर देगा बडा आदमी

वह बडी उदारता के साथ
आपकी चरमराती चारपाई को कहेगा आरामगाह
बड़ा आदमी बड़े प्यार से
आपको कहेगा निरा बुद्धु, भोला और मूर्ख
वह आपको नुस्खे देगा भला, ईमानदार, चरित्रवान बनने के
वह जरूरत समझायेगा बड़ा आदमी बनने की
और आप समझने लगेंगे खुद को बुरा, भ्रष्ट और ओछा

बड़ा आदमी खा नहीं सकेगा आपकी रोटी
वह उसे चखेगा और कहेगा स्वादिष्ट

वह नहीं करेगा यक़ीन आपके घर की दीवार पर टंगी घड़ी पर
वह देखेगा अपनी कलाई
इसी में रहेगी आपकी भलाई
बड़ा आदमी जाने से पहले तलब जाहिर करेगा
एक छोटी, अदनी-सी बड़ी ही मामूली चीज़ की
जो कहीं नहीं मिलेगी आपके घर-भर, गाँव-भर में
वह खुद ही उबारेगा आपको लज्जा से
वह लघुशंका के लिये देखेगा इधर-उधर
आपको शर्म आयेगी अपने घर के सबसे अच्छे कमरे को भी प्रस्तुत करते हुए
हो सकता है बड़ा आदमी साथ ले जाये अपनी शंका
आपको और शर्मिंदा न करने के लिये

आप तैयार रहें
बडा आदमी हंसेगा ठहाका लगाकर दरवाज़े तक जाते-जाते
तब आपको भी आ ही जायेगी हंसी उसे जाते देख

जब विदा हो जायेगा बड़ा आदमी
तब आप भी महसूस करेंगे खुद को बड़ा आदमी।