सुख में, दुःख में मैं
जब मैं खुश होता हूँ बहुत
नहीं उड़ती गुलाल
और ना ही शराब पी जाती है
कदम भी जमीन पर ही पड़ते हैं
बस इतना कि
ऐसा लगता है – कुछ भी गलत नहीं कर रहे हैं अगर जिए जा रहे हैं
अभी भी बहुत कुछ है जिसके लिए जिया जा सकता है।
जब मैं दुःखी होता हूँ बहुत
तब भी नहीं देख सकता कोई मेरे आँसू
देखा-सुना जा सकता है मुझे हँसते हुए
तब भी बड़े सलीक़े से निपटाते हुए ज़रूरी काम
मैं हर चर्चा में रहता हूँ भागीदार
बस इतना कि
तब बहुत उचित लगता है आत्महत्या का विचार
व्यर्थ लगता है मित्रों से बतियाना और हँसना
बहुत ग़ैरज़रूरी लगता है हर काम
सुख और दुःख में हर बार
दुनिया का अर्थ और निरर्थकता
दोनों प्रगट होते हैं सही-सही
एक बार आ जाती है आँखों में चमक
बदन में स्फूर्ति
और एक बार
जबान पर आ जाती है तल्ख़ी
दिमाग में उचाट
दोनों ही बार नहीं रह पाती ज़मीन ठण्ड़ी
सुख और दुःख की इतनी होती हैं घटनायें
कि जमीन ठण्ड़ी हो ही नहीं पाती है यहाँ
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7 comments:
बहुत बढ़िया.
सुख और दुःख की इतनी होती हैं घटनायें
कि जमीन ठण्ड़ी हो ही नहीं पाती है यहाँ
जीने का ये तरीका हम भी सीख सके तो जिन्दगी को "जीने" का आनंद मिले
वीनस केसरी
सुख और दुःख की इतनी होती हैं घटनायें
कि जमीन ठण्ड़ी हो ही नहीं पाती है यहाँ
बहुत सुन्दर.
बहुत बढिया!
सुंदर,अच्छी रचना। सुख और दुख की सुंदर मीमांसा की है आपने।
अति सुन्दर. सुख दुःख में आदमी की सही मनो दशा सटीक चित्रण किया है.
Bahut hi bhavuk abhivyakti.....
Bahut bahut sundar...
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