Thursday, August 20, 2009

प्रतिबंध

फासीवादी गुजरात सरकार ने जसवंत सिंह की किताब पर प्रतिबंध लगा दिया है। क्या अभिव्यक्ति की आज़ादी के दीवाने इस पर भी कोई विचार रखते हैं ?

11 comments:

प्रीतीश बारहठ said...

नहीं

हरकीरत ' हीर' said...

यहाँ बात अभिव्यक्ति की आज़ादी की नहीं है देश की प्रतिष्ठा पर आंच की है .....!!

प्रीतीश बारहठ said...

धन्यवाद मैड़म,
मेरी दो लाइन की पोस्ट पर भी आपकी टिप्पणी से उम्मीद जगी कि संवाद की संभावना बरकार है।
देश की प्रतिष्ठा !! या कांग्रेस, नेहरू और पटेल की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा पर आंच आई है। या यह यह किताब भाजपा नेता की है, इसलिये !! आप संभवतः किताब में ऐसा कोई तथ्य नहीं पायेंगी जो देश की प्रतिष्ठा पर आंच लाने वाला हो। किताब कुछ ऐतिहासिक तथ्यों और उद्धरणों पर बात करती है, जिन्हें नकारने के स्थान पर मिथ्या साबित करना चाहिये जो कोई नहीं कर पायेगा। इसके विपरीत अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर ऐसे बहुत से आन्दोलन हुए जो देश की, संस्कृति की और कई बार मानव मात्र की प्रतिष्ठा पर आंच लाने वाली अभिव्यक्तियों के पक्ष में हुए हैं। यही दोहरे मापदण्ड उल्टे पड़ते हैं इसे समझने की और गाँठ बांध लेने की आवश्यकता है।

प्रीतीश बारहठ said...

क्षमा करें ! क्या यह माना जा सकता है कि गुजरात की भाजपा सरकार( अब तो समस्त भाजपा शासित राज्यों की सरकारें)भी देश की प्रतिष्ठा की सुरक्षा कर रही है? मुझे लगता है इसे मानने में बहुत कठिनाई पेश आयेगी।

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...

जिन्हें यह लगता है कि किताब पर प्रतिबंध लगा कर अर्थात अभिव्यक्ति की आज़ादी को बाधित करके देश की प्रतिष्ठा की रक्षा की सकती है, उनकी समझ पर क्या कहा जाए?

प्रीतीश बारहठ said...

धन्यवाद डॉ. साहब !
जब से यह विवाद छिड़ा है हमने किसी अखबार या समीक्षा में नहीं पढ़ा कि इससे राष्ट्र की प्रतिष्ठा पर आँच आ रही है। हरकीरत मैड़म ने जहाँ यह सुना है वहाँ शायद यह गढ़ा गया है। आखिर सबको अपनी-अपनी वज़हें तो रखनी ही पड़ती हैं। जसवंत की किताब तो अब आई है,पाकिस्तान निर्माण की यह विवेचना हम विद्वानों से पहले से सुनते आ रहे हैं।
मेरा प्रश्न तो यह है कि इस देश की संस्कृति में जहाँ घर आये दुश्मन की भी मान-सम्मान की परिपाटी रही है वहाँ इतने दोहरे मानदण्डों वाली संस्कृति कहाँ से आयात हुई है। इसका वीभत्स रूप देखना हो तो कुछ दिन पहले के 'चरणदास चोर'के प्रकरण पर शोध किया जा सकता है।

Ek ziddi dhun said...

बुरा है यह प्रतिबन्ध लेकिन जसवंत सिंह कभी भी गुजरात में कई फिल्मों और अल्पसंख्यकों व् सेक्युलरों की जिन्दगी पर प्रतिबन्ध पर कभी कुछ नहीं बोले. आपकी क्या राय है बाकी प्रतिबंधों पर?

Ek ziddi dhun said...

हरकीरत की टिपण्णी पर अफ़सोस ही किया जा सकता है.

प्रीतीश बारहठ said...

महोदय जिद्दी धुन,

मुझे हंसी आ रही है...और रुक नहीं रही है।

खैर ! मुझे समझाइयेगा.. कि हमारा सरोकार अभिव्यक्ति की आज़ादी से है या उनका निर्धारण जसंवत के सरोकारों के आधार पर किया जायेगा। तब तो किसी प्रतिबंध का विरोध करने के लिये मैं पहले यह खोज करना शुरू करदूं कि जिसकी कृति पर प्रतिबंध लगाया जा रहा है उसने खुद पहले कभी किसी गलत प्रतिबंध का विरोध किया है या नहीं। यदि नहीं तो तो उसकी कृति पर प्रतिबंध उचित है। क्यों ? यही कहना चाहते हैं न आप !
हाँ बाकी प्रतिबंधों पर मेरी राय पूछना चाहते हैं तो कृपया एक-एक पर पूछें। मैं अपनी राय रखने से पहले कृति और प्रतिबंध के बारे में पर्याप्त जानकारी चाहूँगा, फिर अपनी राय रखूंगा। इन मापदण्डों पर जसवंत सिंह की पुस्तक पर प्रतिबंध को अनुचित मानता हूँ।
मेरा इंगित जसवंत की पुस्तक नहीं दोहरा मानदण्ड है।
ब्लाग पर आने लिये आपका धन्यवाद।

प्रीतीश बारहठ said...

Deepa Singh Said......

जी हाँ अभिव्यक्ति तो सही कहा आपने लेकिन कहीँ ना क़हीँ परतिबन्ध जरूरी भी
हो जाता है जब हम अपने नज्दीक वालोँ की भावनाओँ क़ॉ अहमियत नही दे पाते.

प्रीतीश बारहठ said...

@ Deepa Singh

मैड़म,
अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध को नजदीक वालों की भावनाओं से जोड़कर तो आप हमारे तथाकथित प्रगतिशीलों के लिये ज्यादा समस्या पैदा कर रही हैं। प्रत्येक प्रतिबंध किसी न किसी की भावना आहत होने पर ही लगाया जाता है।