मैंने उस देवता को देखा है
खानपान में, जल-आहार में
मान- मनुहार में
स्पलायरों, ठेकेदारों, दलालों के साथ बंद चैम्बर में
मैंने उसे तब भी देखा है
जब उसके अन्दर था एक देवता उतरा हुआ
उसकी आँखों से बहती थी करुणा की अजस्र धारा
वह अपने रोम-रोम से था दयालु
पोर-पोर से परोपकारी
शांति उसका स्थायी भाव था
प्रेम से आप्लावित थी उसकी वाणी
प्रेम से आप्लावित थी उसकी वाणी
और हृदय था स्नेहासिक्त
जब मैंने उसे देखा
वह -
हंस-हंस बात करता था बातें
हंस-हंस बात करता था बातें
बात-बात पर करता था मज़ाक
बहुत आत्मीय, बहुत शुभचिंतक था,
अपने घर के आदमी की तरह रखता था मुझे और सबको
अपने घर के आदमी की तरह रखता था मुझे और सबको
पूछता दुःख-दर्द की बातें
सहलाता था ज़ख्म,
हमारे साथ-साथ खुद भी उदास हो जाता था हमारी पीड़ाओं में
मैं प्रमुदित हो जाता था जब वह बेटा-बेटा कह कर पुकारता था
देर-से दफ्तर पहुँचने पर डांटता नहीं था
जब चाहूं छुट्टी देने को तैयार रहता था
उसकी ओर से कभी न थी कमीखानपान में, जल-आहार में
मान- मनुहार में
हर आने-जाने वाले से बहुत प्रेम था उसको
सच कहूँ – हम भी उल्लसित रहते थे
सच कहूँ – हम भी उल्लसित रहते थे
उसे देख-देख
भरसक करते थे प्रयास उस जैसा बनने के
और अंत में अपनी क्षमता से, प्रतिभा से बाहर की चीज़ समझ
हम थक-हार संतोष कर बैठ रहते
उन दिनों अच्छा चल रहा था प्रोजेक्ट
खूब मिल रहा था बजट
पूरे स्टेट में उसके ऊपर था केवल एक अफसर
पूरे स्टेट में उसके ऊपर था केवल एक अफसर
जो उसे खूब देता था सेवा का मौक़ा
उसी से करवाता था अपने निजी काम
जैसा चाहो लिखने को तैयार रहता था
वह इतना था योग्य, इतना ज़हीन कि
जैसे वह चाहे आदेश करते थे अधिकारी, अनुमोदन करती थी सरकारें
जैसे वह चाहे आदेश करते थे अधिकारी, अनुमोदन करती थी सरकारें
उसके कर्मचारी
उससे पूछ-पूछकर चलाते थे कलम
आखिर वह रहता ही था सबके साथ भाईचारे-से
सब झुके रहते थे उसके आगे और वह सबके आगे
वह अपनी अदाओं से करता था विभोर
वह अपनी अदाओं से करता था विभोर
सरकारों में माना जाता था उसका लोहा
सारे सप्लायर, सारे ठेकेदार
सारे सप्लायर, सारे ठेकेदार
लाइन में खड़े रहते थे हाजिर
नियमित रूप से पेश करते थे सौगातें
वह करता था खरा सौदा
सरकार के हित में, जनता के हक़ में
इतनी कंजूसी से कि जान निकल जाती थी अच्छे-अच्छे व्यापारियों की
इतनी कंजूसी से कि जान निकल जाती थी अच्छे-अच्छे व्यापारियों की
देख कर भरवाता था निविदा, खींचकर बनवाता था बिल
जनता की भलाई और प्रदेश की प्रगति की खुशी में
जनता की भलाई और प्रदेश की प्रगति की खुशी में
वह बहुत प्रसन्न रहता था उन दिनों
इतना प्रसन्न कि रहता था चुस्त-दुरुस्त
साफ-सुथरा
उससे मिलकर हो जाते थे लोग बाग-बाग
सबकी जुब़ान पर उसीका रहता था नाम
सबकी जुब़ान पर उसीका रहता था नाम
आदमी बड़ा नेक था
दी जाती थी उसकी मिशाल
और वह शरमा जाता अपने इस मान पर
प्रदेश का था वह कर्णधार
ऐसे –ऐसे बनाता था प्रोजेक्ट और योजना कि
ऐसे –ऐसे बनाता था प्रोजेक्ट और योजना कि
ऊपर से नीचे तक कोई नहीं पहुँच पाता उसकी कल्पनाशीलता को
उसकी सोच को
रात-रातभर जाग,
बनाता टेबल,
करता गुणा-भाग,
बनाता टेबल,
करता गुणा-भाग,
सबको पूरा था भरोसा था
कुछ ही दिनों में पहुँचा देगा वह प्रदेश को नम्बर एक पर
कुछ ही दिनों में पहुँचा देगा वह प्रदेश को नम्बर एक पर
प्रतिभा का पुतला था मेरा बॉस
लेकिन खुद को मानता-जताता था सबसे अदना
जो सामने पड़ता उसी को देता सब उपलब्धियों का श्रेय
और खुद हो जाता असम्पृक्त
पोस्टरों, बैनरों पर नहीं होती उसकी फोटो
न अखबारों में छपता उसका नाम
न अखबारों में छपता उसका नाम
पर हाय रे! किसम्त, पलटा विधि का विधान –
अब वह
अब वह
पिछले कुछ दिनों से रहता है उदास,
रहता है झल्लाया हुआ, उलझे हुये से रखता है बाल
बेटा-बेटा कहने वाला वह बात-बात पर दौड़ता है काटने को
हर काम में निकालता है गलती
हर काम में निकालता है गलती
सारे कर्मचारी रहते हैं डरे-दुबके से
मां-बहन करता बाप-दादा तक चला जाता है किसी-किसी के साथ
पद की धौंस दिखाता, कुर्सी से खड़ा हो जाता है उचककर
तान लेता है मुक्का
उसे दीवारें तक नज़र आने लगी हैं दुश्मन
विक्षिप्त सा हो गया है वह इन दिनों
इन दिनों ऐक ऐसा आ गया है अफ़सर
जो देता नहीं है सेवा का मौक़ा
जो देता नहीं है सेवा का मौक़ा
उसने निर्थरक कर दिया है इसकी प्रतिभा को
इतना ही नहीं
चैम्बर में बुला, एक-एक शब्द का मांगता है स्पष्टीकरण
उसके आगे भूल जाता है वाक्य
नहीं जुड पाते क्रिया-पद-विशेषण
कर्ता रह जाता है संज्ञाहीन
दुर्बोध हो जाते हैं सर्वनाम
ऐसा ही आ गया है कर्मचारी
कुछ समझता ही नहीं
कुछ समझता ही नहीं
फाइल पर लिखता है नियम-कानून
जबानी बात तो करता ही नहीं
मूर्ख डरता ही नहीं
कुछ समझता ही नहीं है
इसी ने उलझाकर रख दिया है प्रदेश का सारा विकास
इन दिनों मिल नहीं रही है सरकार की सीधी सीढ़ी
उपर से आ रहा नहीं है बजट
ऊपर से नीचे तक भर गये हैं सारे के सारे मूर्ख
ऊपर से नीचे तक भर गये हैं सारे के सारे मूर्ख
इन दिनों
स्पलायरों, ठेकेदारों, दलालों के साथ बंद चैम्बर में
रोता रहता है इन दिनों
अच्छे समय की आस में
अरे वो पहले ऐसा नहीं था
मैंने देखा है उस देवता को
मैंने देखा है उस देवता को
3 comments:
इससे पहले कि आप लोग डांटे, मैं क्षमा मांगता हूँ अनावश्यक विस्तार के लिये। मैं तय नहीं कर पा रहा हूँ कौन-कौन सी पंक्तियां हटाऊँ।
क्षमा करें और स्नेह रखें
कुछ हटाने की ज़रूरत नहीं है, जो जैसा है, उसे वैसा ही रहने दें .ये तो आज की वास्तविकता है, लम्बी तो होगी ही. बहुत सुन्दर.
आप ऐसा क्यों कहते हैं ? कविता की लंबाई कम करने का प्रश्न ही क्यों आया ? कविता सार्थक है। आपका ब्लाग अपने ब्लाग में जोड़ा है। अब आप के नई पोस्ट तत्काल पढना संभव हो सकेगा।
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