मैं क्या हूँ ईश्वर ही जाने
मुझसे कुछ मत पूछ जमाने
मैं क्या हूँ ईश्वर ही जाने
पलभर को भी मैं नहीं रुकता
लेकिन क्या हूँ मैं कर सकता
क्षण-क्षण बैर-भाव में चुकता
मैं फिरता हूँ खुद से लुकता
सिर फूटा पर कब है झुकता
कंकर समझे ‘मैं हूँ मुक्ता’
खुद को राजा लगा बताने
मैं क्या हूँ ईश्वर ही जाने
भेद सभी का मैंने खोला
अपना वज़न कभी नहीं तोला
जब-जब मुझसे दर्पण बोला
भड़का मेरे भीतर शोला
नहीं था तन पर अपना चोला
अहम् सदा बढ़-चढ़कर बोला
अपनी कमियाँ लगा छिपाने
मैं क्या हूँ ईश्वर ही जाने
मन था मेरा या चौबारा
वहाँ पाप संकलित सारा
धीरज, धर्म, विवेक बेचारा
नष्ट हुआ सब भाईचारा
सब का सब स्वारथ ने मारा
बना दम्भ जीवन आधारा
लगा घात का जाल बिछाने
मैं क्या हूँ ईश्वर ही जाने
इच्छा मेरी कभी न घटती
दौलत जैसे कभी न बढ़ती
निशि-दिन धी स्वयं से ही लड़ती
पग-पग श्री खतरे में पड़ती
मकड़ी ज्यों जाले में फंसती
मति मेरी भी नहीं सुलझती
सौ-सौ मते लगा बनाने
मैं क्या हूँ ईश्वर ही जाने
मैं भावों से सदा रीतकर
आया था हर युद्ध जीतकर
दुर्बल जीता उसे सभीतकर
सबल हराया छल-कुप्रीतकर
भ्रात, शत्रु औ’ कोई मीत कर
छलता रहा नित्य अनीति कर
लगा यहाँ विद्वान कहाने
मैं क्या हूँ ईश्वर ही जाने
सुख शांति सद्भाव पुराने
प्रेमभाव के ताने-बाने
जिनको मैंने कभी न जाने
लगा उन्हीं पर अब पछताने
शील-धर्म-व्यवहार निभाने
अब जीवनधन कहाँ बचाने
अंत समय उद्भाव पुराने
मैं क्या हूँ ईश्वर ही जाने
Thursday, February 18, 2010
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2 comments:
आह!
इन अ-कविता और मुक्तछंद के दौर में आप मनभावन बयार हो।
लुकता और मते शब्दों ने बहुत प्रभावित किया. कविता में लोकरंजन है और मैं इस तत्व का जबरदस्त पैरोकार हूँ. बधाई.
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